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समयसार अनुशीलन
शुद्ध जीवतत्त्व ही है । ऐसी स्थिति में भूतार्थनय से नवतत्त्वों को कैसे जाना जा सकता है ?
उत्तर- टीका के प्रथम पैरा में यह कहा गया है कि तीर्थ की प्रवृत्ति के लिए अभूतार्थनय से प्रतिपादित जीवादि नवतत्त्वों में एकत्व प्रगट करनेवाले भूतार्थनय के द्वारा एकत्व प्राप्त करके शुद्धनयात्मक आत्मख्याति प्रगट होती है अर्थात् आत्मानुभूति प्रगट होती है। इससे यही प्रतिफलित होता है कि नवतत्त्वों में प्रकाशमान एक आत्मज्योति को देखना ही भूतार्थनय से नवतत्त्वों को जानना है।
इसी बात को विस्तार से समझाते हुए टीका में आगे नवतत्त्वों को भाव और द्रव्य इन दो भागों में बाँटा है और यह स्पष्ट किया गया है कि द्रव्यपुण्य, द्रव्यपाप, द्रव्यास्रव, द्रव्यसंवर, द्रव्यनिर्जरा, द्रव्यबंध और द्रव्यमोक्ष अजीव हैं, अजीव के ही विस्तार हैं; तथा भावपुण्य, भावपाप, भावास्रव, भावसंवर, भावनिर्जरा, भावबंध और भावमोक्ष जीव हैं, जीव के ही विस्तार हैं ।
इसप्रकार ये नवतत्त्व जीव और अजीव के ही विस्तार हैं । तात्पर्य यह है कि इन नवतत्त्वों में प्रकारान्तर से जीवतत्त्व समाहित है । नवतत्त्वों में समाहित इस जीवतत्त्व को दिखाना ही भूतार्थनय का कार्य है और इसे ही भूतार्थनय से नवतत्त्वों का जानना कहते हैं ।
जीवाजीवात्मक इन नवतत्त्वों की भूतार्थता - अभूतार्थता पर विचार करते हुए टीका में कहा गया है कि बाह्यदृष्टि से देखा जाय तो जीवपुद्गल की अनादिबंधपर्याय के समीप जाकर एकरूप से अनुभव करने पर ये नवतत्त्व भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं और एक जीवद्रव्य के स्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं । अत: इन नवतत्त्वों में भूतार्थनय से एक जीव ही प्रकाशमान है।
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आगे कहा है कि अन्तर्दृष्टि से देखा जाय तो ज्ञायकभाव जीव है और जीव के विकार का हेतु अजीव है । पुण्यपापादि तत्त्वों में