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समयसार अनुशीलन
इनमें विकारी होने योग्य विकार्य भाव और विकार करनेवाला
विकारक कर्म दोनों ही पुण्य हैं और दोनों ही पाप हैं, आस्रवरूप होने योग्य आस्राव्य भाव और आस्रव करनेवाला आस्रावक कर्म दोनों ही आस्रव हैं, संवररूप होने योग्य संवार्य भाव और संवर करनेवाला संवारक कर्म - दोनों ही संवर हैं, निर्जरारूप होने योग्य निर्जर्य भाव और निर्जरा करनेवाला निर्जरक कर्म - दोनों ही निर्जरा हैं, बंधनरूप होने योग्य बंध्य भाव और बंधन करनेवाला बंधक कर्म
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दोनों ही बंध हैं तथा मोक्षरूप होने योग्य मोच्य भाव और मोक्ष करनेवाला मोचक कर्म - दोनों ही मोक्ष हैं; क्योंकि दोनों में से किसी एक का अपने-आप अकेले पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्षरूप होना संभव नहीं है । वे दोनों जीव और अजीव हैं। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक युगल में से पहला जीव है और दूसरा अजीव है।
बाह्यदृष्टि से देखा जाय तो जीव- पुद्गल की अनादिबंधपर्याय के समीप जाकर एकरूप से अनुभव करने पर ये नवतत्त्व भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं और एक जीवद्रव्य के स्वभाव के समीप जाकर अनुभव करने पर वे अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं; अतः इन नवतत्त्वों में भूतार्थनय से एक जीव ही प्रकाशमान है।
इसीप्रकार अन्तर्दृष्टि से देखा जाय तो एक ज्ञायकभाव जीव है और जीव के विकार का हेतु अजीव है। इनमें से पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्षरूप भाव केवल जीव के विकार हैं, जीव के विशेषभाव हैं, जीवरूप भाव हैं और जीव के विकार के हेतुभूत जो पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्षरूप तत्त्व हैं, वे सभी केवल अजीव हैं ।
ऐसे ये नवतत्त्व, जीवद्रव्य के स्वभाव को छोड़कर स्वयं और पर जिनके कारण हैं – ऐसे एकद्रव्य की पर्यायों के रूप में अनुभव करने पर भूतार्थ हैं, सत्यार्थ हैं और सर्वकाल में अस्खलित एक जीवद्रव्य