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नवतत्त्वों की चर्चा तो मूल गाथा में है, पर प्रमाण -नय-निक्षेप की चर्चा मूल गाथा में नहीं है । अतः नवतत्त्व संबंधी स्पष्टीकरण करने के बाद उपसंहार का कलश लिख दिया। उसके बाद प्रमाण-नयनिक्षेप की चर्चा करके तत्संबंधी कलश लिखा ।
गाथा १३
प्रश्न उसकी भी चर्चा टीका में की जावे?
उत्तर- इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है; क्योंकि सम्बन्धित विषयों का स्पष्टीकरण करना टीकाकार का कर्तव्य है । फिर इस गाथा में तो यह कहा गया है कि भूतार्थनय से जाने हुए नौ तत्त्व सम्यग्दर्शन ही हैं। यह सुनकर जिज्ञासु पाठकों को यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक ही है कि क्या भूतार्थनय के अतिरिक्त भी कोई जानने के साधन हैं? यदि हैं तो उनसे जाने हुए नवतत्त्व सम्यग्दर्शन क्यों नहीं हैं ?
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यह बात तो ठीक नहीं लगती कि जो चर्चा गाथा में न हो,
इस जिज्ञासा के शमन के लिए ही आठवें कलश के बाद की टीका लिखी गई है, जिसमें प्रमाण, नय और निक्षेप के बारे में न केवल प्रकाश डाला गया है, अपितु उनकी भूतार्थता - अभूतार्थता भी स्पष्ट कर दी है।
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यहाँ हम भी आत्मख्याति को इसीप्रकार विभाजित करके प्रस्तुत कर रहे हैं ।
इस गाथा का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - भूतार्थनय से जाने हुए ये जीवादि नवतत्त्व सम्यग्दर्शन ही हैं; क्योंकि तीर्थ (व्यवहारधर्म ) की प्रवृत्ति के लिए अभूतार्थनय से प्रतिपादित जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष नामक नवतत्त्वों में एकत्व प्रगट करनेवाले भूतार्थनय के द्वारा एकत्व प्राप्त करके शुद्धनयात्मक आत्मख्याति प्रगट होती है अर्थात् आत्मानुभूति प्राप्त होती है ।