________________
समयसार अनुशीलन
146 सर्वत्र आत्मज्योति को खोजना भूतार्थनय का ही कार्य है। भूतार्थनय ही यह महान कार्य कर सकता है । अत: समयसार के आरंभ में ही, इस तेरहवीं गाथा में ही यह घोषित कर दिया कि भूतार्थनय से जाने हुए जीवादि नवतत्त्व ही सम्यग्दर्शन हैं और आगे सभी तत्त्वों की मीमांसा भी इसी नय से प्रस्तुत की है. सर्वत्र आत्मज्योति को ही खोजा गया है। रही बात तत्त्वों की संख्या में सात और नौ के अन्तर की, सो यह कोई बात नहीं है; क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र में पुण्य और पाप को आस्रव-बंध में शामिल कर लिया गया है और समयसार में उन्हें अलग कह दिया गया है। - बस इतनी ही बात है।
पुण्यतत्त्व में उपादेयबुद्धि भी एक ऐसा अज्ञान है कि जिसके कारण भगवान आत्मा के दर्शन दुर्लभ हो जाते हैं। आत्मानुभूति प्राप्त करने के लिए इस अज्ञान का निवारण भी अत्यन्त आवश्यक है । यही कारण है कि समयसार में पुण्य-पाप को आस्रव-बंध में शामिल न कर तत्त्वव्यवस्था में स्वतंत्र स्थान दिया गया है और तत्संबंधी अज्ञान के निवारण के लिए स्वतंत्र अधिकार भी रखा गया है। ___ यह तेरहवीं गाथा एक ऐसी गाथा है कि जिसमें आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मख्याति टीका के बीच में भी एक कलश दिया है। सामान्यरूप से आचार्य अमृतचन्द्र यह पद्धति अपनाते हैं कि पहले गद्य में टीका लिखते हैं और यदि आवश्यकता समझें तो अन्त में कलश लिखते हैं; पर इस गाथा की टीका में मध्य में भी कलश दिया है और अन्त में भी।
टीका का गहराई से अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने गाथा में समागत विषय-वस्तु के स्पष्टीकरण के उपरान्त उपसंहार के रूप में आठवाँ कलश दिया है। उसके उपरान्त जो विषयवस्तु गाथा में तो नहीं आई है, तथापि उन्हें उसपर भी प्रकाश डालना प्रसंगोपात्त लगा; अत: उसपर भी प्रकाश डाला है और अन्त में उसके उपसंहार रूप कलश दिया है।