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समयसार अनुशीलन
120 ही संभव है। यहाँ उपदेश के विकल्परूप व्यवहारनय को कहाँ स्थान प्राप्त हो सकता है? __ तीर्थंकर भगवान महावीर का तीर्थ आज भी प्रवर्तित है; क्योंकि उनकी वाणी में निरूपित शुद्धात्मवस्तु का अनुभव ज्ञानीजन आज भी करते हैं - यह व्यवहार और निश्चय की अद्भुत संधि है। अनुभव की प्रेरणा की देशनारूप व्यवहार और अनुभवरूप निश्चय की विद्यमानता व्यवहार-निश्चय को नहीं छोड़ने की प्रक्रिया है, जिसका आदेश उक्त गाथा में दिया गया है।
दूसरे प्रकार से विचार करें तो मोक्षमार्ग की पर्याय को तीर्थ कहा जाता है तथा जिस त्रिकाली ध्रुव निज शुद्धात्मवस्तु के आश्रय से मोक्षमार्ग की पर्याय प्रगट होती है, उसे तत्त्व कहते हैं; अत: व्यवहार को नहीं मानने से मोक्षमार्गरूप तीर्थ और निश्चयनय को नहीं मानने से निज शुद्धात्मतत्त्व के लोप का प्रसंग उपस्थित होगा।"
इस संदर्भ में आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजीस्वामी के विचार भी द्रष्टव्य हैं - __ "जिनमत अर्थात् वीतराग अभिप्राय का प्रवर्तन कराना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय दोनों नयों को मत छोड़ो। 'व्यवहार नहीं है' - ऐसा मत कहो । व्यवहार है, किन्तु गाथा ११ में जो असत्य कहा है, वह त्रिकालध्रुव निश्चय की विवक्षा में गौण करके असत्य कहा है; बाकी व्यवहार है, मोक्ष का मार्ग है । व्यवहारनय न मानो तो तीर्थ का नाश हो जायगा। चौथा, पाँचवाँ, छठवाँ आदि चौदह गुणस्थान जो व्यवहार के विषय हैं, वे हैं - मोक्ष का उपाय जो सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र हैं, वे व्यवहार हैं । चौदह गुणस्थान द्रव्य में नहीं हैं - यह तो ठीक, किन्तु पर्याय में भी नहीं है - ऐसा कहोगे तो तीर्थ का ही नाश हो जायेगा तथा तीर्थ का फल जो मोक्ष और सिद्धपद है, उसका भी १. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ ८१