________________
समयसार अनुशीलन
126
उक्त संदर्भ में आत्मख्याति में समागत निम्नांकित कथन विशेष ध्यान देने योग्य है -
"शुद्धनयः ... परिज्ञायमानः प्रयोजनवान् । .व्यवहारनयो .. परिज्ञायमानः तदात्वे प्रयोजनवान् ।
शुद्धनय जानने में आता हुआ प्रयोजनवान है और व्यवहारनय उसकाल जानने में आता हुआ प्रयोजनवान है।"
उक्त कथन में शुद्धनय को जानने में आता हुआ प्रयोजनवान कहा है और व्यवहारनय को उसकाल जानने में आता हुआ प्रयोजनवान कहा है। इसमें उपदेश देने और ग्रहण करने की बात ही कहाँ आती है? उक्त दोनों नयों के विषय तो यथास्थान जाने हुए ही प्रयोजनवान हैं। __उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी ने जो स्पष्टीकरण दिया है, वह इसप्रकार
___ "जो शुद्धनय तक पहुँचकर श्रद्धावान हुए हैं तथा पूर्णज्ञानचारित्रवान हो गये हैं, उन्हें तो शुद्ध आत्मा का उपदेश करनेवाला शुद्धनय जानने योग्य है । देखो, शुद्धनय का आश्रय (शुद्धनय के विषय का आश्रय) तो समकिती को होता है। यहाँ तो शुद्धनय (केवलज्ञान होने पर) पूर्ण हो गया है, उसका आश्रय करने को अब रहा नहीं, इस अपेक्षा से यहाँ बात की है। जो शुद्धनय तक पहुँचकर श्रद्धावान हुए, अर्थात् जो केवलज्ञान को प्राप्त हुए तथा जिन्होंने चारित्र की सम्पूर्ण स्थिरता को प्राप्त कर लिया, उन्हें तो शुद्धनय के विषयभूत शुद्धात्मा के आश्रय करने का प्रयोजन रहा नहीं, उन्हें तो शुद्धनय मात्र जानने योग्य है। अर्थात् इसका फल जो कृतकृत्यपना आया, उसका केवलज्ञान में ज्ञान हुआ। पूर्ण निर्विकल्पदशा जिसे हो गई, वह उसे मात्र जानता है। अधूरी दशा में होनेवाला राग उसे नहीं है। इसलिए व्यवहार भी उसके नहीं रहता।' १. प्रवचनरलाकर (हिन्दी), भाग १, पृष्ठ १५८