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समयसार अनुशीलन
उक्त कथनों में अत्यन्त स्पष्टरूप से उल्लेख है कि जबतक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हुई है, तबतक व्यवहारमार्ग में प्रवृत्त होना प्रयोजनवान है । तथा जिन्हें दर्शन-ज्ञान की प्राप्ति तो हो गई है; पर साक्षात् प्राप्ति नहीं हुई है, उन्हें भी व्यवहारमार्ग में प्रवर्तन करनाकराना प्रयोजनवान है। इससे सिद्ध होता है कि सम्यग्दर्शन के पूर्व में भी व्यवहारनय प्रयोजनवान है ।
उक्त सम्पूर्ण कथन का गहराई से अध्ययन करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि परमभाव एवं अपरमभाव को निम्नांकित तीन प्रकार से घटित कर सकते हैं -
१. आत्मानुभवी सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष श्रद्धा की अपेक्षा परमभाव में स्थित हैं। अत: उन्हें देशनालब्धिरूप व्यवहार का कोई विशेष प्रयोजन नहीं रहा; क्योंकि समझने योग्य त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा को वे समझ चुके हैं, अनुभव भी कर चुके हैं ।। ___ अज्ञानी मिथ्यादृष्टि अपरमभाव में स्थित हैं। वे आत्मा को नहीं समझते हैं । अत: उन्हें आत्मा का स्वरूप समझानेवाला व्यवहारनय प्रयोजनवान है । आठवीं गाथा में म्लेच्छ के उदाहरण से इस बात को भली-भाँति स्पष्ट किया गया है। वहाँ जिसने 'आत्मा' शब्द भी नहीं सुना है - ऐसा अज्ञानी मिथ्यादृष्टि शिष्य लिया है। उसे समझाने के लिए ही व्यवहार के उपदेश की उपयोगिता बताई है । निश्चय-व्यवहार संबंधी यह प्रकरण भी वहीं से आरंभ हुआ है, जो यहाँ बारहवीं गाथा में आकर समाप्त हो रहा है ।
अत: यहाँ मिथ्यादृष्टि अज्ञानी को अपरमभाव में लेना अनुचित प्रतीत नहीं होता ।
मुख्यरूप से समझाना तो अज्ञानी को ही है और व्यवहार की उपयोगिता भी समझने-समझाने में ही अधिक है। आखिर व्यवहार