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समयसार अनुशीलन
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___ "के षां जे ये पुरुषाः दु पुनः अपरमे अशुद्धे असंयतसम्यग्दृष्ट्यपेक्षया श्रावकापेक्षया वा सरागसम्यग्दृष्टिलक्षणे शुभोपयोगे प्रमत्ताप्रमत्तसंयतापेक्षया च भेदरत्नत्रयलक्षणे वा ठिदा स्थिताः । कस्मिन् स्थिताः ? भावे जीवपदार्थे तेषामिति भावार्थ :।"
तात्पर्यवृत्ति के उक्तांश का अर्थ वीरसागरजी महाराज इसप्रकार करते हैं -
"जो पुरुष अपरमभाव में स्थित हैं, अर्थात् चतुर्थगुणस्थानवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से अथवा पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक की अपेक्षा से जो सरागसम्यग्दर्शन-लक्षण शुभोपयोग में स्थित हैं अथवा षष्ठ-सप्तम गुणस्थानवर्ती प्रमत्त-अप्रमत्त संयत (सकलसंयम) की अपेक्षा भेदरत्नत्रयलक्षण शुभोपयोग में - जीवपदार्थ में स्थित हैं, उनके लिये व्यवहारनय प्रयोजनवान है।''
उक्त कथन से स्पष्ट है कि शुभाशुभभावरूप अशुद्धभाव अपरमभाव है और शुद्धोपयोगरूप शुद्धभाव परमभाव है। यह भी स्पष्ट है कि चतुर्थ गुणस्थान से सिद्ध अवस्था तक परमभाव और अपरमभाव को यथास्थान यथायोग्य घटित किया जा सकता है।
उक्त कथन से तो यही प्रतीत होता है कि चतुर्थ गुणस्थान के पहले निश्चय और व्यवहारनय नहीं होते।निश्चय और व्यवहारनय सम्यग्ज्ञान के अंश हैं; अतः उनका यथार्थरूप में होना सम्यग्दृष्टि के ही संभव है। तथापि इस संदर्भ में इसी गाथा के भावार्थ में व्यक्त जयचन्दजी छाबड़ा के विचार भी द्रष्टव्य हैं - __ "जहाँतक यथार्थ ज्ञान-श्रद्धान की प्राप्तिरूप सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं हुई हो, वहाँतक तो जिनसे यथार्थ उपदेश मिलता है - ऐसे जिनवचनों को सुनना, धारण करना तथा जिनवचनों को कहनेवाले श्रीजिनगुरु की भक्ति, जिनबिम्ब के दर्शन इत्यादि व्यवहारमार्ग में प्रवृत्त १. समयसार : श्रीसमयसार प्रकाशन समिति, शुक्रवार पेठ, सोलपुर-२, पृष्ठ १७