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समयसार अनुशीलन
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उक्त दोनों ही कथन क्रमबद्धपर्याय को सिद्ध करते हैं । क्रमबद्धपर्याय के संबंध में विस्तार से जानने की भावना हो तो लेखक की अन्य कृति 'क्रमबद्धपर्याय' का अध्ययन किया जाना चाहिए।
जिनवचनों की विशेषता बताते हुए उक्त छन्द में कहा गया है कि वे जिनवचन निश्चय-व्यवहार या द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक नयों के बीच दिखाई देनेवाले विरोध को मिटाने में समर्थ 'स्याद्' पद से अंकित हैं।
निश्चयनय अथवा द्रव्यार्थिकनय से आत्मवस्तु सामान्य, अभेदअखण्ड, नित्य एवं एक है और व्यवहारनय अथवा पर्यायार्थिकनय से विशेष, भेद, अनित्य एवं अनेक है। - इसप्रकार उक्त दोनों नयों में परस्पर विरोध भासित होता है; पर ऐसा विरोध तो एकान्तवादियों के ही हो सकता है, 'स्याद्' पद को स्वीकार करनेवाले अनेकान्तवादियों के नहीं।
इस कलश का भावानुवाद कविवर बनारसीदासजी इसप्रकार करते हैं
( सवैया इकतीसा ) निहचै मैं रूप एक विवहार मैं अनेक,
यही नै-विरोध मैं जगत भरमायौ है। जग के विवाद नासिबे कौं जिन आगम है,
जामैं स्याद्वादनाम लच्छन सुहायौ है। दरसनमोह जाकौ गयौ है सहजरूप,
आगम प्रमान ताके हिरदै मैं आयौ है। अनै सौं अखंडित अनूतन अनंत तेज,
ऐसो पद पूरन तुरंत तिनि पायौ है।