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समयसार अनुशीलन
उक्त कलश में यह कहा गया है कि जो पुरुष जिनवचनों में रमण करते हैं, वे तत्काल ही आत्मा का अनुभव करते हैं । यहाँ जिनवचनों में रमण करने का अर्थ मात्र जिनवाणी का पठन-पाठन करना ही नहीं है; अपितु जिनवाणी में प्रतिपादित शुद्धनय के विषयभृत त्रिकालीध्रुव, नित्य, अखण्ड, अभेद, एक निज भगवान आत्मा में अपनापन स्थापित करना, उसे ही निज जानना और उसमें जमना - रमना है; क्योंकि आत्मानुभव करने की यही प्रक्रिया है ।
'जिनवचसि रमन्ते' का अर्थ पाण्डे राजमलजी कलशटीका में इसप्रकार करते हैं
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शुद्ध जीववस्तु का
"दिव्यध्वनि द्वारा कही है उपादेयरूप शुद्ध जीववस्तु, उसमें सावधानपने रुचि-श्रद्धा-प्रतीति करते हैं । विवरण प्रत्यक्षपने अनुभव करते हैं, उसका नाम रुचि श्रद्धा - प्रतीति है । भावार्थ इसप्रकार है - वचन पुद्गल है, उसकी रुचि करने पर स्वरूप की प्राप्ति नहीं । इसलिए वचन के द्वारा कही जाती है जो कोई उपादेय वस्तु, उसका अनुभव करने पर फल प्राप्ति है । "
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आत्मकल्याण की भावना से जिनवाणी का अत्यन्त रुचिपूर्वक स्वाध्याय करना, पढ़ना-पढ़ाना, लिखना - लिखाना; उसके अर्थ का विचार करना, मंथन करना; परस्पर चर्चा करना, प्रश्नोत्तर करना आदि व्यवहार से जिनवचनों में रमण करना है और जिनवाणी में प्रतिपादित शुद्धनय की विषयभूत आत्मवस्तु का अनुभव करना निश्चय से जिनवचनों में रमण करना है ।
व्यवहारजिनवचनों में रमण करना देशनालब्धि का प्रतीक है और निश्चयजिनवचनों में रमण करना करणलब्धि का प्रतीक है।
यहाँ जिनवचनों में रमने का फल तत्काल ही आत्मानुभव बताया है; अतः यहाँ निश्चयनय वाला अर्थ लेना ही उपयुक्त है I