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समयसार अनुशीलन
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भूदत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च । आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ॥१३॥
( हरिगीत ) चिदचिदास्रव पाप-पुण्य शिव बंध संवर निर्जरा ।
तत्त्वार्थ ये भूतार्थ से जाने हुए सम्यक्त्व हैं ॥१३॥ भूतार्थ से जाने हुए जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष – ये नवतत्त्व ही सम्यग्दर्शन हैं।
इस गाथा में सम्यग्दर्शन का स्वरूप तो बताया ही गया है, प्रकारान्तर से समयसार में आगे आनेवाली विषयवस्तु का संकेत भी कर दिया है, आगे के अधिकारों के नामोल्लेख भी कर दिये हैं । कर्ताकर्म अधिकार एवं सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार को छोड़कर अन्य सभी अधिकारों के नाम भी आ ही गये हैं, अधिकारों का क्रम भी आ गया है। इस गाथा में तत्त्वों के नाम जिस क्रम से आये हैं, वही क्रम अधिकारों का है। इससे स्पष्ट है कि इस गाथा में तत्त्वों के नामों का जो क्रम है, वह छन्दानुरोध से नहीं, अपितु बुद्धिपूर्वक रखा गया है। ____ यह क्रम तत्त्वार्थसूत्र के क्रम से कुछ हटकर है । तत्त्वार्थसूत्र के सूत्र में भी जो क्रम है, वही क्रम उसके प्रतिपादन में भी है, अधिकारों में भी है। अत: वहाँ भी वह क्रम बुद्धिपूर्वक ही रखा गया है। उसके
औचित्य पर भी उसके टीकाकारों ने प्रकाश डाला है । तत्त्वार्थसूत्र गद्य में होने से छन्दानुरोधवाला तर्क भी नहीं दिया जा सकता। ___अत: यहाँ समयसार में समागत क्रम के औचित्य की समीक्षा भी आवश्यक है। उक्त सन्दर्भ में हमें आत्मख्याति से मार्गदर्शन प्राप्त होता है। आत्मख्याति टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने इसे नाटक के रूप में प्रस्तुत किया है । नाटक के मंच पर जोड़ों (युग्मों) की प्रधानता रहती है। इसके अधिकारों के चयन में भी जोड़ों को ध्यान में रखा गया है। जैसे – जीव-अजीव, कर्ता-कर्म, पुण्य- पाप, आस्रव-संवर, बंध