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कलश ७
जाही छिन चेतना सकति कौ विचार कीजै,
ताही छिन अलख अभेदरूप लहिये। जिसप्रकार तिनका, काष्ठ, बाँस और कंडे आदि ईंधन जब अग्नि में जलते हैं तो अग्नि उनके आकार रूप में ही परिणमित होती है । यदि उक्त आकारों की दृष्टि से देखें तो अग्नि अनेक प्रकार की दिखाई देगी; परन्तु यदि अग्नि के दाहक स्वभाव की दृष्टि से देखें तो सभी अग्नि एक प्रकार की ही हैं, एक ही हैं।
उसीप्रकार यह भगवान आत्मा नव तत्वों रूप परिणमित होता हुआ शुद्ध, अशुद्ध और मिश्र आदि अनेक रूप हुआ प्रतीत होता है; किन्तु यदि उसी समय चेतना शक्ति की दृष्टि से देखें तो वह अखण्ड आत्मा अभेदरूप ही दिखाई देता है।
उक्त सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह है कि जिसप्रकार अनेक प्रकार के ईंधन को जलानेवाली अग्नि ईंधन के आकाररूप से परिणमित होने के कारण अनेक नाम पाती है; काठ की अग्नि, तृण की अग्नि, कंडे की अग्नि आदि अनेक नामों से अभिहित की जाती है; तो भी स्वभाव की दृष्टि से देखने पर वह एक दाहकस्वभाव के रूप में ही दिखाई देती है।
उसीप्रकार यह भगवान आत्मा नवतत्त्वों में जाकर शुद्ध, अशुद्ध, मिश्र भावों से युक्त होकर अनेक प्रकार का हो गया है, नवतत्त्वरूप हो गया है, जीव-अजीव, पुण्य-पाप, आस्रव-बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष रूप हो गया लगता है; तो भी चेतनास्वभाव की दृष्टि से देखने पर अत्यन्त स्पष्टरूप से एक, अभेद, अखण्ड, नित्य ही प्रतीति में आता है।
नौ तत्त्वों में एक आत्मा ही प्रकाशमान है; क्योंकि नौ तत्त्वरूप होकर भी उसने अपने शुद्धनय के विषयभूत सामान्य, नित्य, अभेद एवं एक स्वभाव को नहीं छोड़ा है।
१. समयसार नाटक, जीवद्वार, छंद ८