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कलश ४
इनके अतिरिक्त पाण्डे राजमलजी की बालबोध टीका को आधार बना कर पण्डित बनारसीदासजी ने इन कलशों की विषयवस्तु को हिन्दी के विविध छन्दों में सुसज्जित कर 'नाटक समयसार' के रूप में प्रस्तुत किया है, जो अपने-आप में बेजोड़ कृति है और विगत चार शताब्दियों से अध्यात्मप्रेमी समाज का कण्ठहार बनी हुई है।
आरंभ के तीन कलश तो आत्मख्याति के मंगलाचरण एवं ग्रन्थ करने की प्रतिज्ञा आदि के रूप में ही हैं, जिनका अनुशीलन हम आरंभ में ही कर चुके हैं । अब आरंभ की बारह गाथाओं के बाद चार कलश आये हैं । इनमें से एक तो इन बारह गाथाओं के उपसंहाररूप है और तीन कलश आगामी गाथा की उत्थानिका के रूप में हैं।
( मालिनी) उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदांके
जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः। सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चै रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षंत एव॥४॥
( रोला ) उभयनयों में जो विरोध है उसके नाशक ।
स्याद्वादमय जिनवचनों में जो रमते हैं। मोह वमन कर अनय-अखण्डित परमज्योतिमय।
स्वयं शीघ्र ही समयसार में वे रमते हैं ॥४॥ जो पुरुष निश्चय और व्यवहार - इन दो नयों के प्रतिपादन में दिखाई देने वाले विरोध को ध्वसं करनेवाले, स्याद्वाद से चिन्हि जिनवचनों में रमण करते हैं; स्वयं पुरुषार्थ से मिथ्यात्व का वमन करनेवाले वे पुरुष कुनय से खण्डित नहीं होनेवाले, परमज्योतिस्वरूप अत्यन्त प्राचीन अनादिकालीन समयसाररूप भगवान आत्मा को तत्काल ही देखते हैं, अर्थात् उसका अनुभव करते हैं। ::