________________
103
गाथा ९-१०
यद्यपि यह सत्य है कि पंचमकाल के अन्त तक भावलिंगी मुनिराज एवं ज्ञानी श्रावक होंगे; पर इतने मात्र से किसी व्यक्तिविशेष को ज्ञानी श्रावक या भावलिंगी संत तो नहीं माना जा सकता है; क्योंकि उसमें अपने पद के अनुरूप सभी पात्रताओं का होना भी तो आवश्यक है । पर जो यह मानते हैं कि इस समय आत्मानुभव – स्वसंवेदनज्ञान हो ही नहीं सकता, उन्हें तो आत्मानुभव होने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता और आत्मानुभव के बिना उनका सच्चा साधु होना या सच्चा ज्ञानी श्रावक होना भी संभव नहीं है ।
निष्कर्ष के रूप में हम यह कह सकते हैं कि श्रुतज्ञान का अधिकतम विकास द्वादशांग का पाठी होना ही है; इसकारण ही उसे यहाँ सर्वश्रुत कहा है । 'जो आत्मा सर्वश्रुत को जानता है, वह श्रुतकेवली है' का अर्थ यह हुआ कि जिस आत्मा का श्रुतज्ञान पूर्णत: विकसित हो गया है, वह श्रुतकेवली है ।
उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी के विचार भी द्रष्टव्य हैं
पूर्ण विकसित श्रुतज्ञान में स्व- पर सभी द्रव्य श्रुतज्ञान के विषय बनते हैं । अतः यह सुनिश्चित हुआ कि सर्वश्रुत को जाननेवाले श्रुतकेवली ने सभी को जाना है। उसके इस सर्वज्ञान में स्व को जानने के कारण वह निश्चयश्रुतकेवली कहा जाता है और द्वादशांगरूप पर को जानने के कारण वह व्यवहारश्रुतकेवली कहलाता है ।
ऐसी ही अपेक्षा केवली पर भी घटित होती है । स्व-पर सभी को जाननेवाले केवली भगवान स्व को जानने के कारण निश्चयकेवली और लोकालोक को जानने के कारण व्यवहारकेवली कहे जाते हैं । ऐसा भी कहा जाता है कि केवली भगवान निश्चय से आत्मज्ञ हैं और व्यवहार से सर्वज्ञ ।
—
-
44
'जो जीव ज्ञान की पर्याय में छहों द्रव्य, उनके गुण-पर्याय - सभी ज्ञेयों को जानते हैं, उन्हें व्यवहारश्रुतकेवली कहते हैं। आत्मा को जाने