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समयसार अनुशीलन
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उक्त मंथन से यह स्पष्ट है कि दृष्टि के विषयभूत त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा का प्रतिपादक शुद्धनय (परमशुद्धनिश्चयनय) ही एक भूतार्थ है, सत्यार्थ है; शेष सभी नय व्यवहार होने से अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं । शुद्धनय अथवा शुद्धनय के विषयभूत भगवान आत्मा के आश्रय से ही सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है; अतः एकमात्र वही उपादेय है।
धर्म परिभाषा नहीं, प्रयोग है। पर और विकारी-अविकारी पर्यायों से भिन्न ज्ञानानन्दस्वभावी चैतन्य ध्रुवतत्त्व ही आश्रय करने योग्य परमपदार्थ है। वह स्वयं धर्मस्वरूप है। उसके आश्रय से ही पर्याय में धर्म प्रकट होता है। अतः सुखाभिलाषी को, आत्मार्थी को, मुमुक्षु को अपने को पहिचानना चाहिए, अपने में जम जाना चाहिए, रम जाना चाहिए। सुख पाने के लिए अन्यत्र भटकना आवश्यक नहीं। अपना सुख अपने में है, पर में नहीं, परमेश्वर में भी नहीं; अतः सुखार्थी का परमेश्वर की ओर भी किसी आशा-आकांक्षा से झाँकना निरर्थक है। तेरा प्रभु तू स्वयं है। तू स्वयं ही अनन्त सुख का भण्डार है, सुखस्वरूप है, सुख ही है। सुख को क्या चाहना? चाह ही दुःख है। पंचेन्द्रिय के विषयों में सुख है ही नहीं। चक्रवर्ती की सम्पदा पाकर भी यह जीव सुखी नहीं हो पाया। ज्ञानी जीवों की दृष्टि में चक्रवर्ती की सम्पत्ति की कोई कीमत नहीं है, वे उसे जीर्ण तृण के समान त्याग देते हैं और अन्तर में समा जाते हैं। अन्तर में जो अनन्त आनन्दमय महिमावन्त पदार्थ विद्यमान है, उसके सामने बाह्य विभूति की कोई महिमा नहीं।
धर्म परिभाषा नहीं, प्रयोग है। अत: आत्मार्थी को धर्म को शब्दों में रटने के बजाय जीवन में उतारना चाहिए, धर्ममय हो जाना चाहिए।
___- तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ ३८