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समयसार गाथा १२ अब यह प्रश्न फिर उपस्थित होता है कि जब शुद्धनय के आश्रय से ही सम्यग्दर्शन होता है, व्यवहार के आश्रय से नहीं; इसलिए प्रत्यगात्मदर्शियों के लिए व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य नहीं है तो फिर इस व्यवहारनय का उपदेश ही क्यों दिया जाता है?
इस प्रश्न के उत्तर में बारहवीं गाथा में कहा गया है कि व्यवहारनय भी किन्हीं-किन्हीं को कभी-कभी प्रयोजनवान होता है; इसलिए यह सर्वथा निषेध करने योग्य नहीं है और इसलिए जिनवाणी में इसका उपदेश दिया गया है।
यह व्यवहारनय किनको और कब प्रयोजनवान है ? - यह बताना ही बारहवीं गाथा का मूल प्रतिपाद्य है। मूल गाथा इसप्रकार है -
सुद्धो सुद्धादेसो णादव्वो परमभावदरसीहिं । ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमेट्ठिदा भावे ॥१२॥
( हरिगीत ) परमभाव को जो प्राप्त हैं वे शुद्धनय ज्ञातव्य हैं ।
जो रहें अपरमभाव में व्यवहार से उपदिष्ट हैं ॥१२॥ जो शुद्धनय तक पहुँचकर श्रद्धावान हुए तथा पूर्ण ज्ञान-चारित्रवान हो गये हैं, उन्हें शुद्धात्मा का उपदेश करनेवाला शुद्धनय जानने योग्य है और जो जीव अपरमभाव में स्थित हैं, श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र के पूर्णभाव को नहीं पहुँच सके हैं, साधक-अवस्था में ही स्थित हैं, वे व्यवहारनय द्वारा उपदेश करने योग्य हैं।
इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -