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गाथा ११
उक्त कथन से यह अत्यन्त स्पष्ट है कि शुद्धनिश्चयनय के भी अनेक भेद होते हैं तथा उनमें कुछ भूतार्थ और कुछ अभूतार्थ होते हैं। शुद्धनिश्चयनय के जिस भेद का विषय पर और पर्याय से रहित, गुणभेद से भिन्न, अभेद, नित्य, एक भगवान आत्मा बनता है; वह ही भूतार्थ है, सत्यार्थ है; शेष सभी अभूतार्थ हैं, असत्यार्थ हैं। । वैसे तो प्रत्येक नय अपने प्रयोजन की दृष्टि से भूतार्थ होता है अर्थात् अपने प्रयोजन को सिद्ध करने की अपेक्षा भूतार्थ है, पर सम्यग्दर्शन की प्राप्ति एकमात्र शुद्धनय (परमशुद्धनिश्चयनय) के आश्रय से ही होती है; अतः इस दृष्टि से एकमात्र वही भूतार्थ है ।
प्रश्न - आचार्य जयसेन के उक्त कथन से तो व्यवहार भी भूतार्थ हो गया?
उत्तर - व्यवहार भी कथंचित् भूतार्थ है। यह बात चौदहवीं गाथा में पाँच उदाहरणों के माध्यम से पाँच बोलों में की गई है। जिसकी विस्तृत चर्चा यथास्थान होगी ही। इस गाथा के भावार्थ में पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा ने भी यह बात स्पष्ट कर दी है। साथ ही यह भी स्पष्ट कर दिया है कि प्राणियों को व्यवहार का पक्ष तो अनादि से ही है और इसका उपदेश भी बहुत दिया जाता है, जहाँ देखो इसी की चर्चा होती है। जिनवाणी में भी यथास्थान इसकी पर्याप्त चर्चा प्राप्त होती है। इतना सब होने पर भी अन्तत: उसका फल तो संसार ही है, उसके आश्रय से मुक्ति प्राप्त होना संभव नहीं है।
शुद्धनय का पक्ष अनादि से अभीतक आया नहीं है और उसका उपदेश भी विरल है। अतः उसी की मुख्यता से निरूपण है और यहाँ उसी का आश्रय लेने की प्रेरणा दी गई है, उसी को भूतार्थ कहा है। प्रश्न - "निश्चयमिह भूतार्थं व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम्। भूतार्थबोधविमुखः प्रायः सर्वोऽपि संसारः॥५॥