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समयसार अनुशीलन
अब यह प्रश्न उपस्थित होता है कि जब व्यवहारनय ने परमार्थ प्रतिपादकत्व के कारण अपने को भली-भाँति स्थापित कर लिया है, तो फिर उसका अनुसरण क्यों नहीं करना चाहिए ?
इस प्रश्न के उत्तरस्वरूप ही ११वीं गाथा का जन्म हुआ है, जो इसप्रकार है
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ववहारो भूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ । भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो ॥ ११ ॥ ( हरिगीत )
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शुद्धनय भूतार्थ है अभूतार्थ है व्यवहारनय । भूतार्थ की ही शरण गह यह आत्मा सम्यक् लहे ॥ ११ ॥ 'व्यवहारनय अभूतार्थ है शुद्धनय भूतार्थ है ' - ऐसा कहा गया है । जो जीव भूतार्थ का आश्रय लेता है, वह जीव निश्चय से सम्यग्दृष्टि होता है ।
उक्त गाथा का भाव स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र आत्मख्याति में लिखते हैं
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" सब ही व्यवहारनय अभूतार्थ होने से अभूत (अविद्यमानअसत्य) अर्थ को प्रगट करते हैं। एक शुद्धनय ही भूतार्थ होने से भूत (विद्यमान - सत्य) अर्थ को प्रगट करता है ।
अब इसी बात को उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हैं । यद्यपि प्रबल कीचड़ के मिलने से आच्छादित है निर्मलस्वभाव जिसका, ऐसे समल जल का अनुभव करनेवाले एवं जल और कीचड़ के विवेक से रहित अधिकांश लोग तो उस जल को मलिन ही अनुभव करते हैं। वे यह नहीं समझ पाते कि स्वभाव से तो जल निर्मल ही है, मलिनता तो मात्र संयोग में है । इसकारण वे जल को ही मलिन मान लेते हैं । तथापि कुछ लोग अपने हाथ से डाले हुए कतकफल के पड़ने मात्र से उत्पन्न जल