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'अंतरंग में आपने तो निर्धार करके यथावत् निश्यचय-व्यवहार मोक्षमार्ग को पहिचाना नहीं और जिन आज्ञा मानकर निश्चयव्यवहाररूप मोक्षमार्ग दो प्रकार मानते हैं । सो मोक्षमार्ग दो नहीं हैं, मोक्षमार्ग का निरूपण दो प्रकार है । इसलिए निरूपण अपेक्षा दो प्रकार मोक्षमार्ग जानना । एक निश्चयमोक्षमार्ग और एक व्यवहारमोक्षमार्ग इसप्रकार दो मोक्षमार्ग मानना मिथ्या है। "
गाथा ९-१०
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उक्त कथन में जिसप्रकार मोक्षमार्ग पर निश्चय - व्यवहार घटित किए गये हैं, उसीप्रकार केवली और श्रुतकेवली पर भी निश्चयव्यवहार घटित कर लेना चाहिए ।
जिसप्रकार मोक्षमार्ग दो नहीं, उसका निरूपण दो प्रकार से है एक निश्चयमोक्षमार्ग और दूसरा व्यवहारमोक्षमार्ग; उसीप्रकार केवली या श्रुतकेवली दो नहीं, उनका निरूपण दो प्रकार से है एक निश्चयकेवली या निश्चयश्रुतकेवली और दूसरा व्यवहारकेवली या व्यवहार श्रुतकेवली ।
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जिसप्रकार निश्चय और व्यवहार केवली तेरहवें गुणस्थान और उसके आगे ही होते हैं, उसके पहले नहीं; उसीप्रकार निश्चय और व्यवहार श्रुतकेवली भी चौथे से बारहवें गुणस्थान तक ही होते हैं, उसके पहले नहीं; क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीव न तो द्वादशांग के पाठी ही होते हैं और न स्वसंवेदनज्ञानी ही ।
प्रश्न - शास्त्रों में जिन श्रुतकेवलियों की बात आती है, वे तो सभी मुनिराज ही थे; फिर चतुर्थ गुणस्थान से श्रुतकेवली होते हैं यह आप कैसे कहते हैं?
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उत्तर - सौधर्मादि इन्द्र, लोकांतिकदेव एवं सर्वार्थसिद्धि आदि के अहमिन्द्र भी तो द्वादशांग के पाठी और आत्मानुभवी होते हैं । तथा यह
१. पण्डित टोडरमल : मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ २४८ - २४९