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गाथा ५
भी सकता है, कदाचित् चबाने के स्थान पर कूटकर पीसकर भी दे सकता है; पर निगलना तो स्वयं को ही होगा। तुम्हारे भोजन को कोई और निगल तो नहीं सकता । यदि वह निगलेगा तो भोजन उसके पेट में जायेगा, तुम्हारे में नहीं; उससे उसकी भूख मिटेगी, तुम्हारी नहीं ।
यहाँ और सब काम तो आचार्यदेव ने कर ही दिये हैं; पर अनुभव करना तो निगलने के समान है, उसे तो तुम्हें ही करना होगा । जिसप्रकार दूसरे का निगला हुआ भोजन तुम्हें पोषण नहीं दे सकता; उसीप्रकार दूसरे का अनुभव तुम्हारे काम नहीं आयेगा । आत्मा का अनुभव तो तुम्हें ही करना होगा, तभी तुम्हारा कल्याण होगा। इसलिए आचार्यदेव कहते हैं कि अनुभव से प्रमाण करना ।
प्रश्न – जब आचार्य कुन्दकुन्द को सीमन्धर परमात्मा के दर्शनों का साक्षात् लाभ प्राप्त हुआ था और उनकी दिव्यध्वनि श्रवण का लाभ भी मिला था तो फिर उनकी देशना को आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने भगवान महावीर की आचार्य परम्परा से क्यों जोड़ा ? कुन्दकुन्द की वाणी को सीमन्धर परमात्मा की वाणी से जोड़कर बात करने से उनकी वाणी में विशेष प्रामाणिकता आती, जिससे लोगों को उनकी वाणी का अध्ययन करने में विशेष रस आता, विशेष उत्साह रहता, विशेष प्रेरणा प्राप्त होती ।
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उत्तर - ऊपर-ऊपर से सोचने पर तो ऐसा ही लगता है, गंभीरता से विचार करने पर आचार्य अमृतचन्द्र का यह प्रयोग अत्यन्त विवेक-सम्मत प्रतीत होता है । कुन्दकुन्द वाणी को सीमन्धर परमात्मा से जोड़ने पर अनेक प्रश्न खड़े हो जाते ।
सर्वप्रथम तो यही कहा जाने लगता कि इसका क्या प्रमाण है कि उन्हें सीमन्धर परमात्मा की दिव्यध्वनि के श्रवण का अवसर प्राप्त हुआ था । ठोस प्रमाण के अभाव में उनकी वाणी पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाता ।