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समयसार अनुशीलन
लेना चाहिए । इसप्रकार यहाँ ज्ञायकभावरूप भगवान आत्मा को गुणस्थानातीत कहकर शुद्ध कहा गया है।
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आचार्य अमृतचन्द्र ने इस गाथा की जो टीका लिखी है, वह अत्यन्त गम्भीर है जो गहराई से मंथन करने की अपेक्षा रखती है। पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा के अनुसार उसका अर्थ और भावार्थ इसप्रकार है
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" जो स्वयं अपने से ही सिद्ध होने से (किसी से उत्पन्न हुआ न होने से ) अनादि सत्तारूप है, कभी विनाश को प्राप्त न होने से अनन्त है, नित्य उद्योतरूप होने से क्षणिक नहीं है और स्पष्ट प्रकाशमान ज्योति है; ऐसा जो ज्ञायक एक 'भाव' है, वह संसार की अवस्था में अनादि बंधपर्याय की निरूपणा से ( अपेक्षा से) क्षीर-नीर की भाँति कर्मपुद्गलों के साथ एकरूप होने पर भी, द्रव्य के स्वभाव की अपेक्षा से देखा जाय तो दुरन्त कषायचक्र के उदय की (कषायसमूह के अपार उदयों की) विचित्रता के वश से प्रवर्त्तमान पुण्य-पाप को उत्पन्न करनेवाले समस्त अनेकरूप शुभाशुभ भाव, उनके स्वभावरूप परिणमित नहीं होता (ज्ञायक भाव से जड़भावरूप नहीं होता), इसलिए वह प्रमत्त भी नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है; वही समस्त अन्य द्रव्यों के भावों से भिन्नरूप से उपासित होता हुआ 'शुद्ध' कहलाता है ।
और जैसे दाह्य (जलने योग्य पदार्थ) के आकार होने से अग्नि को दहन कहते हैं, तथापि उसके दाह्यकृत अशुद्धता नहीं होती; उसीप्रकार ज्ञेयाकार होने से उस 'भाव' के ज्ञायकता प्रसिद्ध है, तथापि उसके ज्ञेयकृत अशुद्धता नहीं है; क्योंकि ज्ञेयाकार अवस्था में जो ज्ञायकरूप से ज्ञात हुआ, वह स्वरूपप्रकाशन की (स्वरूप को जानने की) अवस्था में भी, दीपक की भाँति, कर्त्ता - कर्म का अनन्यत्व (एकता) होने से ज्ञायक ही है स्वयं जाननेवाला है; इसलिए स्वयं कर्त्ता और अपने को जाना इसलिए स्वयं ही कर्म है । (जैसे दीपक घटपटादि को
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