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समयसार अनुशीलन अंग और नौ पूर्व में अधिक का ज्ञान नहीं होता तो फिर बारह अंग के पाठी द्रव्यश्रुतकेवली - व्यवहारश्रुतकवली स्वसंवेदनज्ञान से रहित कैसे हो सकते हैं ? यह बात गंभीरता से विचारने की है। __श्रुतकेवली कहलाने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि वे आत्मज्ञानी होने के साथ-साथ द्वादशांगश्रुत के पाठी भी हों। यही कारण है कि पंचमकाल में अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के बाद अनेक स्वसंवेदी भावलिंगी संत हो गये हैं, पर श्रुतकेवली कोई नहीं हुआ।
प्रश्न - आचार्य जयसेन ने तो साफ-साफ लिखा है कि जो शुद्धात्मा का अनुभव नहीं करते, शुद्धात्मा को नहीं भाते, केवल द्वादशांगरूप बाह्य विषय को ही जानते हैं; वे व्यवहार श्रुतकेवली हैं। उक्त कथन से तो यही प्रतिफलित होता है कि व्यवहार श्रुतकेवली आत्मानुभवी नहीं होते । इसीप्रकार निश्चयश्रुतकेवली द्वादशांग के पाठी नहीं होते; क्योंकि वे तो स्वसंवेदन ज्ञान के बल से मात्र शुद्धात्मा को ही जानते हैं; परन्तु आप यहाँ यह कह रहे हैं कि प्रत्येक श्रुतकेवली आत्मज्ञानी भी होते हैं, स्वसंवेदन ज्ञानी भी होते हैं और द्वादशांग के पाठी भी होते हैं?
उत्तर -अरे, भाई! निश्चयश्रुतकेवली और व्यवहार श्रुतकेवली कोई अलग-अलग व्यक्ति थोड़े ही होते हैं, श्रुतकेवली तो एक ही होते हैं और वे द्वादशांग के पाठी और आत्मानुभवी ही होते हैं । आत्मानुभवी होने के कारण उन्हें ही निश्चयश्रुतकेवली कहते हैं और द्वादशांग के पाठी होने के कारण उन्हें ही व्यवहार श्रुतकेवली कहते हैं।
इसी बात को इसप्रकार भी व्यक्त कर सकते हैं कि श्रुतकेवली निश्चय से निज शुद्धात्मा को ही जानते हैं, पर को नहीं, द्वादशांगरूप श्रुत को भी नहीं; तथा वे ही श्रुतकेवली व्यवहार से द्वादशांगरूप श्रुत को जानते हैं, आत्मा को नहीं।