________________
91
गाथा ८
__इसीप्रकार आत्मा शब्द से अपरिचित लौकिकजनों को जब कोई ज्ञानी धर्मात्मा आचार्यदेव 'आत्मा' शब्द से सम्बोधित करते हैं तो वे भी आँखें फाड़-फाड़कर - टकटकी लगाकर देखते ही रहते हैं; क्योंकि वे आत्मा शब्द के वाच्य-वाचक सम्बन्ध से पूर्णत: अपरिचित होते हैं; परन्तु जब सारथी की भाँति व्यवहार-परमार्थ मार्ग पर सम्यग्ज्ञानरूपी महारथ को चलानेवाले अन्य आचार्यदेव या वही आचार्य स्वयं ही व्यवहारमार्ग में रहते हुए आत्मा शब्द का अर्थ इसप्रकार बतलाते हैं कि जो दर्शन-ज्ञान-चारित्र को प्राप्त हो, वह आत्मा है; तब वे लौकिकजन भी आत्मा शब्द के अर्थ को भली-भाँति समझ लेते हैं और तत्काल ही उत्पन्न होनेवाले अतीव आनन्द से उनके हृदय में बोधतरंगें उछलने लगती हैं।
इसप्रकार जगत म्लेच्छ के तथा व्यवहारनय म्लेच्छ भाषा के स्थान पर होने से व्यवहारनय परमार्थ का प्रतिपादक है और इसीलिए व्यवहारनय स्थापित करने योग्य भी है; तथापि ब्राह्मण को म्लेच्छ तो नहीं बन जाना चाहिए' – इस वचन से व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य नहीं है।" _ 'यदि व्यवहारनय हेय है तो उसका प्रतिपादन ही क्यों किया ?' - शिष्य के इस प्रश्न के उत्तर में म्लेच्छ और म्लेच्छ भाषा का उदाहरण देकर स्पष्ट किया गया है कि जिसप्रकार म्लेच्छ भाषा के बिना म्लेच्छ को समझाना संभव नहीं है, उसीप्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ को समझाना संभव नहीं है। अत: व्यवहार को परमार्थ का प्रतिपादक जानकर उसका उपदेश दिया गया है।
गाथा में तो इतनी ही बात कही गई है, पर टीका में गाथा के भाव को खोलते हुए सावधान भी कर दिया गया है कि म्लेच्छ को समझाने के लिए म्लेच्छ भाषा के उपयोग को तो उचित माना जा सकता है, पर म्लेच्छ हो जाना कदापि ठीक नहीं है। म्लेच्छ से म्लेच्छ भाषा में बात कर लेना अलग बात है और स्वयं म्लेच्छ हो जाना एकदम अलग बात है। इन दोनों के अन्तर को गहराई से पहिचानना चाहिए।