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समयसार गाथा ९-१० आठवीं गाथा में यह कहा गया है कि परमार्थ का प्रतिपादक होने से व्यवहारनय भी स्थापित करने योग्य है; परन्तु प्रश्न तो यह है कि व्यवहार परमार्थ का प्रतिपादक किसप्रकार है?
इस प्रश्न के उत्तर में ही ९वीं एवं १०वीं गाथाएं लिखी गई हैं, जो इसप्रकार हैं -
जो हि सुदेणहिगच्छदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं । तं सुदकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवयरा ॥९॥ जो सुदणाणं सव्वं जाणदि सुदकेवलिं तमाहु जिणा । णाणं अप्पा सव्वं जम्हा सुदकेवली तम्हा ॥१०॥
( हरिगीत ) श्रुतज्ञान से जो जानते हैं शुद्ध केवल आतमा। श्रुतकेवली उनको कहें ऋषिगण प्रकाशक लोक के॥९॥ जो सर्वश्रुत को जानते उनको कहें श्रुतकेवली। सब ज्ञान ही है आतमा बस इसलिए श्रुतकेवली॥१०॥
जो जीव श्रुतज्ञान के द्वारा केवल एक शुद्धात्मा को जानते हैं, उसे लोक के ज्ञाता ऋषिगण निश्चयश्रुतकेवली कहते हैं और जो सर्वश्रुतज्ञान को जानते हैं, उन्हें जिनदेव व्यवहारश्रुतकेवली कहते हैं; क्योंकि सब ज्ञान आत्मा ही तो है।
उक्त गाथाओं के भाव को आत्मख्याति में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - __"जो श्रुतज्ञान के बल से केवल शुद्ध आत्मा को जानते हैं, वे श्रुतकेवली हैं – यह परमार्थ कथन है और जो सर्वश्रुतज्ञान को जानते हैं, वे श्रुतकेवली हैं - यह व्यवहार कथन है।