________________
93
गाथा ८
लगाकर देखते ही रहना विशुद्धिलब्धि को सूचित करता है; क्योंकि कषाय की मंदता के बिना ऐसी प्रवृत्ति संभव नहीं है ।
आचार्यदेव द्वारा व्यवहारमार्ग से आत्मा का स्वरूप समझाना कि 'जो दर्शन, ज्ञान और चारित्र को प्राप्त हो, वह आत्मा है ' यह देशनालब्धि है । प्रसन्नचित्त से इस देशना को सुनना, समझने में चित्त लगाना प्रायोग्यलब्धि को सूचित करता है और गुरुवचन का मर्म ख्याल में आते ही बोधतरंगों का उछलना और आनन्दाश्रुओं का आना करणलब्धि का सूचक है।
तात्पर्य यह है कि भले ही कोई जीव आत्मा के बारे में कुछ भी न जानता हो; पर उसमें पात्रता हो, अपने आत्मा को समझने योग्य बुद्धि का विकास हो, कषायें मंद हों, आत्मा की तीव्र रुचि हो, आत्मज्ञानी गुरु के प्रति बहुमान का भाव हो, आस्था हो, यथायोग्य विनय हो, उनसे आत्मा का स्वरूप समझने की धगस हो, गहरी जिज्ञासा हो, पूरा-पूरा प्रयास हो तो योग्य गुरु के द्वारा करुणापूर्वक व्यवहारमार्ग से समझाये जाने पर आत्मा की बात उसकी समझ में अवश्य आती है और यदि पुरुषार्थ की उग्रता हो तो आत्मानुभव भी होता ही है ।
इसप्रकार इस गाथा में पाँचों लब्धियों को प्राप्त कर सम्यग्दर्शन प्राप्त करने की विधि का भी परिज्ञान करा दिया गया है। पात्र शिष्य और निश्चय-व्यवहारज्ञ आत्मज्ञानी गुरु का स्वरूप भी स्पष्ट कर दिया गया है । व्यवहारनय की उपयोगिता बताकर जिनवाणी में उसके प्रयोग का औचित्य भी स्पष्ट कर दिया है और अन्त में व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य नहीं है - यह भी बता दिया है। प्रकारान्तर से आत्मानुभव की प्रेरणा भी दी गई है ।
अतः हम सभी का परमकर्त्तव्य है कि निज भगवान आत्मा की बात रुचिपूर्वक सुनें, गहराई से समझे; उसपर गंभीरता से विचार करें और भगवान आत्मा की प्राप्ति के लिए उग्र पुरुषार्थ करें; क्योंकि मानव जीवन की सफलता आत्मानुभव करने में ही है ।