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गाथा ९-१०
अब यहाँ विचार करते हैं कि उपर्युक्त सर्वज्ञान आत्मा है कि
अनात्मा ?
अनात्मा कहना तो ठीक नहीं है; क्योंकि जड़ अनात्मा तो आकाशादि पाँच द्रव्य हैं, किन्तु उनका ज्ञान के साथ तादात्म्य नहीं है । अतः अन्य उपाय का अभाव होने से ज्ञान आत्मा ही है यही सिद्ध होता है; इसलिए यह सहज ही सिद्ध हो गया कि सर्व श्रुतज्ञान भी आत्मा ही है। ऐसा सिद्ध होने पर यह पारमार्थिक तथ्य सहज ही फलित हो गया कि जो आत्मा को जानता है, वही श्रुतकेवली है ।
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इसप्रकार ज्ञान और ज्ञानी के भेद से कथन करनेवाला जो व्यवहार है, उससे भी मात्र परमार्थ ही कहा जाता है, अन्य कुछ नहीं ।
'जो श्रुतज्ञान से केवल शुद्ध आत्मा को जानते हैं, वे श्रुतकेवली हैं ' - इस परमार्थ का प्रतिपादन अशक्य होने से 'जो सर्वश्रुत को जानते हैं, वे श्रुतकेवली हैं' - ऐसा व्यवहारकथन परमार्थ का ही प्रतिपादक होने से अपने को दृढ़तापूर्वक स्थापित करता है । '
सातवीं गाथा में जिस अनुपचरित - सद्भूतव्यवहारनय की चर्चा की गई थी, यहाँ इन नौवीं - दशवीं गाथाओं में निश्चयश्रुतकेवली और व्यवहार श्रुतके वली का उदाहरण देकर उसी अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनय को परमार्थ (निश्चय) का प्रतिपादक सिद्ध किया गया गया है ।
श्रुतज्ञान ज्ञानगुण का ही एक प्रकार है या ज्ञानगुण की ही एक पर्याय है । इसप्रकार श्रुतज्ञान (गुण) और आत्मा (गुणी ) में गुण- गुणीरूप तादात्म्यसंबंध है । अथवा श्रुतज्ञान (पर्याय) और आत्मा (पर्यायवान ) में पर्याय- पर्यायवानरूप तादात्म्यसंबंध है ।
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गुण-गुणी सम्बन्ध और पर्याय- पर्यायवान सम्बन्ध इन दोनों को ही जिनागम में गुणभेद नाम से ही जाना जाता है और इस गुणभेद को विषय बनानेवाले नय को अनुचरित - सद्भूतव्यवहारनय कहते हैं ।