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गाथा ७
क्षेत्र को अखण्ड रखा गया है, अनन्तगुणात्मक - अखण्ड कहकर भाव को अखण्ड रखा गया है; उसीप्रकार अनादि - अनन्त त्रिकालीध्रुव नित्य कहकर काल को भी अखण्डित रखा गया है । अन्त में एक कहकर सभी प्रकार की अनेकता का निषेध कर दिया गया है। इसप्रकार दृष्टि
विषयभूत त्रिकालीध्रुव द्रव्य में पर्यायों के अनुस्यूति से रचित प्रवाह रूप स्वकाल का निषेध नहीं किया गया है, अपितु विशिष्ट पर्यायों का ही निषेध किया गया है।
भूतकाल की पर्यायें तो विनष्ट ही हो चुकी हैं, भविष्य की पर्यायें अभी अनुत्पन्न हैं और वर्तमान पर्याय स्वयं दृष्टि है, जो विषयी है; वह दृष्टि के विषय में कैसे शामिल हो सकती है? विषय बनाने के रूप में तो वह शामिल हो ही रही है; क्योंकि वर्तमान पर्याय जबतक द्रव्य की ओर न ढले, उसके सन्मुख न हो, उसे स्पर्श न करे, उससे तन्मय न हो, उसमें एकाकार न हो जाय; तबतक आत्मानुभूति की प्रक्रिया भी सम्पन्न नहीं हो सकती । इसप्रकार वर्तमान पर्याय अनुभूति के काल में द्रव्य के सन्मुख होकर तो द्रव्य से अभेद होती ही है, पर यह अभेद अन्य प्रकार का है, गुणों और प्रदेशों के अभेद के समान नहीं ।
इसप्रकार दृष्टि का विषयभूत द्रव्य काल से खण्डित भी नहीं होता और उत्पन्नध्वंसी विशेष पर्याय दृष्टि के विषय में शामिल भी नहीं होती ।
प्रवचनसार की ९९वीं गाथा की आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका नामक टीका में प्रदेशों की अखण्डता को वस्तु की समग्रता और परिणामों की अखण्डता को वृत्ति की समग्रता कहा है । तथा दोनों के व्यतिरेकों को क्रमश: प्रदेश और परिणाम कहकर प्रदेशों के क्रम का कारण अर्थात् विस्तारक्रम का कारण प्रदेशों का परस्पर व्यतिरेक है और प्रवाहक्रम का कारण परिणामों (पर्यायों) का परस्पर व्यतिरेक है ऐसा कहा है ।
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