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समयसार अनुशीलन
गुणभेद अनुपचरित-सद्भूतव्यवहारनय का विषय है और ज्ञायकभाव व्यवहारातीत है; इसकारण त्रिकाली ध्रुव ज्ञायकभाव में गुणभेद का निषेध किया गया है । छठवीं गाथा में प्रमत्त-अप्रमत्त पर्यायों के निषेध द्वारा उपचरित सद्भूत व्यवहारनय का निषेध किया गया था। इसप्रकार अब उपचरित और अनुपचरित दोनों ही सद्भूतव्यवहारनयों का निषेध हो गया है।
उपचरित और अनुपचरित असद्धृतव्यवहारनयों का निषेध तो तीसरी गाथा की टीका में ही कर आये हैं और 'परद्रव्यों से भिन्न उपासित होता हुआ' - कहकर छठवीं गाथा की टीका में भी कर दिया है। छठवीं व सातवीं गाथा में उपचरित-सद्भूतव्यवहारनय एवं अनुपचरित-सद्भूतव्यवहारनय का भी निषेध कर दिया गया है। इसप्रकार चारों ही प्रकार के व्यवहारनयों का निषेध हो गया है।
इसप्रकार पर से भिन्न, प्रमत्त-अप्रमत्त पर्यायों से भिन्न एवं गुणभेद से भी भिन्न ज्ञायकभाव अनुभूति में आता हुआ शुद्ध कहलाता है। त्रिकाली ध्रुव ज्ञायकभाव की शुद्धता का वास्तविक स्वरूप यही है और यही शुद्धस्वभाव दृष्टि का विषय है, ध्यान का ध्येय है और परमशुद्धनिश्चयनय का विषयभूत परमपदार्थ है तथा परमभावग्राही द्रव्यार्थिकनय का विषयभूत परमपारिणामिकभाव है; इसे ही यहाँ शुद्ध ज्ञायकभाव शब्द से अभिहित किया गया है। ___ यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि गुणभेद भी तो वस्तु का स्वभाव है, पर्यायें भी वस्तु का अंश हैं; उनका मूलवस्तु में निषेध कैसे किया जा सकता है?
इसीप्रकार का प्रश्न उठाते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा इसी गाथा के भावार्थ में लिखते हैं - ___ "इसप्रकार अभेद में भेद किया जाता है, इसलिए वह व्यवहार है। यदि परमार्थ से विचार किया जाय तो एक द्रव्य अनन्त पर्यायों को अभेदरूप से पीकर बैठा है, इसलिए उसमें भेद नहीं है।