________________
समयसार गाथा ७
अब यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि पर के साथ का ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध भी जब व्यवहार होने से अशुद्धि का जनक है; तब तो विकल्पोत्पादक गुणभेद भी व्यवहार होने से अशुद्धि का ही जनक होगा । ऐसी स्थिति में आत्मा में ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है - ऐसा कहना भी असत्यार्थ होगा ?
इसी प्रश्न के उत्तर में सातवीं गाथा का उद्भव हुआ है, जो इसप्रकार है
-
ववहारेणुवदिस्सदि णाणिस्स चरित्त दंसणं णाणं । णविणाणं ण चरित्तं ण दंसणं जाणगो सुद्धो ॥७॥ ( हरिगीत ) दृग ज्ञान चारित जीव के हैं यह कहा व्यवहार से । ना ज्ञान दर्शन चरण ज्ञायक शुद्ध है परमार्थ से ॥ ७ ॥ ज्ञानी (आत्मा) के ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये तीन भाव व्यवहार से कहे जाते हैं; निश्चय से ज्ञान भी नहीं है, दर्शन भी नहीं है और चारित्र भी नहीं है; ज्ञानी (आत्मा) तो एक शुद्ध ज्ञायक ही है ।
"
-
1
आत्मा में ज्ञान - दर्शन - चारित्र गुण नहीं है' यह बात नहीं है; क्योंकि आत्मा तो ज्ञानादि अनन्तगुणों का अखण्डपिण्ड ही है और ज्ञानादि गुणों के अखण्डपिण्डरूप आत्मा को ही ज्ञायकभाव कहते हैं ।
छठवीं गाथा में ज्ञायकभाव को उपासित होता हुआ शुद्ध कहा था, अनुभूति में आता हुआ शुद्ध कहा था और अनुभूति निर्विकल्पदशा में ही होती है । गुणों के विस्तार में जाने से, भेदों में जाने से विकल्पों की उत्पत्ति होती है, इसकारण अनुभूति के विषयभूत ज्ञायकभाव में गुणभेद का निषेध किया गया है।