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समयसार अनुशीलन
परिणमित नहीं होने से अप्रमत्त नहीं है; अपितु ऐसा कहा है कि शुभाशुभभावरूप परिणमित न होने से प्रमत्त भी नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है; क्योंकि शुभ और अशुभ दोनों ही भाव प्रमत्तभाव हैं और उनके अभाव में होनेवाले निर्मलभाव शुद्धभाव अप्रमत्तभाव हैं । ज्ञायकभाव न तो मलिनभावोंरूप ही है और न पर्यायगत निर्मल भावोंरूप ही है; क्योंकि वह परिणमनरूप ही नहीं है, वह तो अपरिणामी तत्त्व हैं ।
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वह अपरिणामी ज्ञायकभाव अन्य द्रव्यों और उनके भावों से भिन्न उपासित होता हुआ शुद्ध कहलाता है ।
परपदार्थों और उनके भावों से भिन्न होने के कारण यद्यपि यह ज्ञायकभाव सदा शुद्ध ही है, तथापि जबतक यह ज्ञायकभाव अपने श्रद्धा - ज्ञान - चारित्र का विषय नहीं बनता, अनुभूति में नहीं आता; तबतक उसके शुद्ध होने का लाभ पर्याय में प्राप्त नहीं होता, आत्मा में अतीन्द्रिय आनन्द की कणिका नहीं जगती, मिथ्यात्व ग्रन्थि का भेद नहीं होता । अतः यह कहा गया है कि वह परभावों से भिन्न उपासित होता हुआ शुद्ध कहलाता है ।
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आध्यात्मिक सत्पुरुष श्रीकानजीस्वामी इस विषय को इसप्रकार स्पष्ट किया करते थे
"परद्रव्यों और उनके भावों से भिन्न भगवान आत्मा शुद्ध तो है, पर किसको ? जिसने जाना, उसको । आत्मा का अनुभव किए बिना ही जो ऐसे ही शुद्ध-शुद्ध कहा करे, उसे ज्ञायकभाव के शुद्ध होने का लाभ प्राप्त नहीं होता । ज्ञायकभाव तो सदा शुद्ध ही है, में शुद्धता उसके अनुभव से ही आती है।"
परन्तु पर्याय
इसप्रकार गाथा के आरंभिक तीन पदों का भाव यह सुनिश्चित हुआ कि यह ज्ञायकभाव प्रमत्त- अप्रमत्त नहीं है, गुणस्थानातीत है, और उनके भावों से सर्वथा भिन्न है, पर के साथ इसका कोई भी संबंध
परद्रव्य