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गाथा ५
यद्यपि यह बात पूर्णतः सत्य है कि आचार्य कुन्दकुन्द को सीमन्धर परमात्मा के दर्शनों का लाभ प्राप्त हुआ था, उनकी दिव्यवाणी श्रवण करने का लाभ भी प्राप्त हुआ था; तथापि यदि कोई इसमें शंका करे तो करो; पर इसमें तो शंका करने को कोई स्थान ही नहीं है कि उन्हें हर अन्तर्मुहूर्त में निज भगवान आत्मा के दर्शनों का लाभ प्राप्त होता था; क्योंकि सभी भावलिंगी मुनिराजों को आचार्यों को इसप्रकार का लाभ प्राप्त होता ही है । यही कारण कि उनकी वाणी आत्मानुभव से प्रसूत होती है और उसे आगम और आगमपाठी पूर्वाचार्यपरम्परा का पृष्ठबल प्राप्त रहता है तथा वह वाणी तर्क की तुला पर नपी-तुली होती है ।
इस समयसार ग्रन्थाधिराज में आचार्य कुन्दकुन्द जिस शुद्धात्म वस्तु का प्रतिपादन करने जा रहे हैं, उसका अनुभव वे प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त में करते थे, उसका रसास्वाद वे प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त में लेते थे; अत: उनकी यह वाणी आत्मानुभव से प्रसूत है । मानों वे हर अन्तर्मुहूर्त में आत्मा को देख-देख कर ही उसका स्वरूप इसमें लिखते रहे हैं ।
शुद्धात्मा के प्रतिपादन के अतिरिक्त जो भी जिनागम में आता है, उसे तो सुनकर - पढ़कर ही लिखा जाता है, छद्मस्थों द्वारा पुराण- पुरुषों और त्रिलोकादि का वर्णन तो सुनकर या पढ़कर ही जाना जाता है; उनका अनुभव तो संभव है ही नहीं, उन्हें तर्क की कसौटी पर कसना भी संभव नहीं है; क्योंकि वे वस्तुयें काल व क्षेत्र से दूरवर्ती हैं; पर आत्मा तो सदा और सर्वत्र हमारे पास ही हैं; पास ही क्या, हम स्वयं आत्मा ही तो हैं । यही कारण है कि आत्मा का अनुभव संभव होता है ।
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अतः समयसार के प्रतिपादन को अन्य पुराणादि व त्रिलोकादि के प्रतिपादन के समान मात्र सुनी-सुनाई बात नहीं समझना चाहिए। यह तो आचार्यदेव के अनुभव से निकली हुई बात है और हमें भी इसे