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समयसार अनुशीलन
यदि किसी तरह यह प्रमाणित भी कर दिया जाता तो फिर यह प्रश्न खड़ा होता कि कौन-कौन से ग्रन्थ उसके पहले लिखे गये और कौनकौन से बाद में ? जो पहले लिखे गये थे, उनकी प्रामाणिकता का आधार क्या होता ? यह सिद्ध करना भी आसान नहीं है कि सभी ग्रन्थ बाद में लिखे गये हैं ।
जिन आचार्यों को सीमन्धर परमात्मा की वाणी सुनने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ है; उनकी वाणी की प्रामाणिकता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाया जाने लगता। लोगों को ऐसा प्रतीत होने लगता कि जिन्होंने सीमन्धर परमात्मा की वाणी सुनी है, उनकी वाणी अपेक्षाकृत अधिक प्रामाणिक है जबकि ऐसा कोई भेद जिनागम में है ही नहीं और होना भी नहीं चाहिए।
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सीमन्धर परमात्मा के दर्शन एवं उनकी वाणी का लाभ मिलना महान सौभाग्य की बात है; पर उसमें आचार्य कुन्दकुन्द को कुछ नया ज्ञान प्राप्त हुआ था ऐसी कोई बात नहीं है; क्योंकि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान तो उन्हें पहले से था ही, छठवें सातवें गुणस्थान की भूमिका के योग्य सम्यक् चारित्र भी था । सीमन्धर परमात्मा के दर्शनों के बाद भी इससे अधिक कुछ नहीं हुआ था ।
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भावलिंगी सच्चे मुनिराजों की यह मर्यादा आगम में बताई गई है कि वे प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त में सातवें गुणस्थान में जाते ही हैं, अप्रमत्त अवस्था को प्राप्त करते ही हैं, आत्मानुभव करते ही हैं, शुद्धोपयोग में जाते ही हैं।
पंचमकाल में इससे आगे जाना संभव ही नहीं है । अतः यह सुनिश्चित है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने सीमन्धर परमात्मा के दर्शनों के पूर्व ही उस चरमबिन्दु को स्पर्श कर लिया था, जिस पर पहुँचना पंचमकाल में संभव था ।