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समयसार अनुशीलन ऐसा यह जीवलोक इस विषय में परस्पर आचार्यत्व भी करता है, एकदूसरे को समझाता है, सिखाता है, प्रेरणा देता है। यही कारण है कि काम-भोग-बंधकथा सबको सुलभ है।
किन्तु निर्मल भेदज्ञानज्योति से स्पष्ट भिन्न दिखाई देनेवाला आत्मा का एकत्व अथवा एकत्व-विभक्त आत्मा यद्यपि अंतरंग में प्रगटरूप से प्रकाशमान है; तथापि कषाय-चक्र के साथ एकरूप किये जाने से अत्यन्त तिरोभूत हो रहा है।
जगत के जीव एक तो अपने को जानते नहीं हैं और जो आत्मा को जानते हैं, उनकी सेवा नहीं करते हैं, उनकी संगति में नहीं रहते हैं। इसकारण इस एकत्व-विभक्त आत्मा की बात जगत के जीवों ने न तो कभी सुनी है न कभी इसका परिचय प्राप्त किया है और न कभी वह आत्मा जगत के जीवों के अनुभव में ही आया है। यही कारण है कि भिन्न आत्मा का एकत्व सुलभ नहीं है।"
इस टीका का भाव स्पष्ट करते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा भावार्थ में लिखते हैं -
"इस लोक में समस्त जीव संसाररूपी चक्र पर चढ़कर पंचपरावर्तनरूप भ्रमण करते हैं। वहाँ उन्हें मोहकर्मरूपी पिशाच के द्वारा जोता जाता है । इसलिए वे विषयों की तृष्णारूपी दाह से पीड़ित होते हैं और उस दाह का इलाज इन्द्रियों के रूपादि विषयों को जानकर उनकी ओर दौड़ते हैं तथा परस्पर भी विषयों का ही उपदेश करते हैं।
इसप्रकार काम तथा भोग की कथा तो अनन्तबार सुनी, परिचय में प्राप्त की और उसी का अनुभव किया; इसलिए वह सुलभ है।
किन्तु सर्व परद्रव्यों से भिन्न एक चैतन्यचमत्कारस्वरूप अपने आत्मा की कथा का ज्ञान स्वयं को स्वयं से कभी हुआ नहीं, और जिसे वह ज्ञान हुआ है उनकी सेवा नहीं की; इसलिए उसकी कथा न तो कभी