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श्रद्धान
३. सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि में अन्तर दसं. टी./२२/६८/६. कालद्रव्यमन्यद्वा परमागमाविरोधेन विचारणीयं ___* मिथ्यादृष्टिका धर्म सम्बन्धी श्रद्धान श्रद्धान नहीं । परं किन्तु वीतरागसर्व ज्ञवचनं प्रमाण मिति मनसि निश्चित्य
-दे० मिथ्यादृष्टि। विचारो न कर्तव्यः । ...विवादे रागद्वेषौ भवतस्ततश्च संसारवृद्धि
* सम्यग्दृष्टिके श्रद्धानमें कदाचित् शंकाको सम्भावना। रिति । काल द्रव्य तथा अन्य द्रव्यके विषय में परमागम के अविरोधसे ही विचारना चाहिए। 'वीतराग सर्वज्ञका वचन प्रमाण है।
-दे० निःशंकित/३ । ऐसा मनमें निश्चय करके उनके कथनमें विवाद नहीं करना चाहिए। ____२. सूक्ष्मादि पदार्थोके अश्रद्धानमें भी सम्यग्दर्शन क्योंकि विवाद में राग-द्वेष व इनसे संसारकी वृद्धि होती है।
सम्मत है। पं, ध/उ./४८२ अर्थवशादत्र सूत्रं (सूत्रार्थे ) शङ्का न स्यान्मनीषिणाम । सुक्ष्मान्तरितदूरार्थाः स्युस्तदास्तिक्यगोचराः ।४८२६ - सूक्ष्म, भ. आ./वि./३७/१३९/२१ यदि नाम धर्मादिद्रव्यापरिज्ञानात् परिज्ञानदूरवर्ती और अन्तरित पदार्थ सम्यग्दृष्टिके आस्तिक्यके गोचर हैं सहचारि श्रद्धानं नोस्पन्नं तथापि नासौ मिथ्याष्टिदशनमोहोदअतः उनके अस्तित्व प्रतिपादक आगममें प्रयोजनबश कभी भी शंका यस्थ अश्रद्धानपरिणामस्याज्ञानविषयस्याभावात् । न हि श्रद्धाननहीं होती।४८२॥
स्यानुत्पत्तिरश्रद्धानं इति गृहीतं श्रद्धानादन्यदश्रद्धानं इदमिथमिति दे० आगम// छद्मस्थोंको विरोधी सूत्रोंके प्राप्त होनेपर विशिष्ट श्रूतनिरूपितेऽरुचिः। = यद्यपि धर्मादि द्रव्यों का ज्ञान न होनेसे ज्ञानीके अभाव में दोनोंका संग्रह कर लेना चाहिए।
ज्ञानके साथ होनेवाली श्रद्धा उत्पन्न नहीं हुई तो भी वह सम्यदे० सम्यग्दर्शन/I/१/२ तत्त्वादिपर अन्धश्रद्धान करना आज्ञा. ग्दृष्टि ही है, मिथ्यादृष्टि नहीं है, क्योंकि दर्शन मोहनीय कर्म के सम्यक्त्व है।
उदयसे उत्पन्न हुआ जो अश्रद्धान जो कि अज्ञानको विषय करता
है वह यहाँ नहीं है। मिथ्यादर्शनसे उत्पन्न हुआ जो श्रद्धान व १. क्षयोपशमकी हीनतामें तत्व सूत्रोंका भी अन्ध
अरुचि रूप है अर्थात् यह वस्तु स्वरूप इस तरहसे है ऐसा जो श्रद्धान कर लेना योग्य है
आगममें कहा गया है उस विषयमें अरुचि होना यह मिथ्यादर्शन
रूप अश्रद्धान है और प्रकृत विषयमें ऐसी अश्रद्धा नहीं है। परन्तु का. अ./३२४ जो ण विजाणदि तच्च सो जिणवयणे करेदि सद्दहणं ।
जिनेश्वरके प्रतिपादित जीवादि सच्चे हैं, ऐसी मनमें प्रीति-रुचि जं जिणवरेहि भणियं तं सब्वमहं समिच्छामि ।३२४। =जो तत्त्वों
उत्पन्न होती है। को नहीं जानता किन्तु जिनवचनमें श्रद्धान करता है कि जिन भगवान्ने जो कुछ कहा है उस उस सबको मैं पसन्द करता हूँ। वह ३. गुरु नियोगसे सम्यग्दृष्टिके भी असत् वस्तुका भी श्रद्धावान् है ।३२४
श्रद्धान सम्भव है। पं.वि./१/१२५ यः कल्पयेत् किमपि सर्व विदोऽपि वाचि संदिह्य
तत्त्वमसमञ्जसमात्मबुद्ध्या । खे पत्रिण विचरतां सुदृशेक्षितानां भ, आ./मू./३२/१२१ सम्मादिट्ठी जीवो उवइळं पवयणं तु सद्दहइ । संख्या प्रति प्रविदधाति स वादमन्धः ॥१२॥ - जो सर्वज्ञके भी सद्दहइ असम्भावं अयाणमाणो गुरुणियोगा।३२। -सम्यग्दृष्टि जीव वचनमें सन्दिग्ध होकर अपनी बुद्धिसे तत्त्वके विषयमें अन्यथा जिन उपदिष्ट प्रवचनका तो श्रद्धान करता ही है, किन्तु कदाचित, कुछ कल्पना करता है, वह अज्ञानी पुरुष निर्मल नेत्रों वाले व्यक्तिके ( सद्भावको) नहीं जानता हुआ गुरुके नियोगसे असद्भावका भी द्वारा देखे गये आकाशमें विचरते हए पक्षियोंकी संख्याके विषयमें श्रद्धान कर लेता है।३२१ ( क.पा./सुत्त/१०/गा १०७/६३७); (पं. विवाद करने वाले अन्धेके समान आचरण करता है ।१२५॥ ( पं.. सं./प्रा./१/१२); (ध.१/१,१,१३/गा, ११०/१७३); (ध,६/१,६-८,६/ वि./१३/३४)।
गा, १४/२४२), (गो, जी./मू./२७/५६)।
ल.सा./मू./१०५/१४४ सम्मुदये चलमलिणमगाद सद्दहदि तच्चयं अत्थं । ४. अन्ध श्रद्धानकी विधिका कारण व प्रयोजन
सद्दहदि असम्भाव अजाणमाणो गुरुणियोगा ।१०३१ =सम्यक्त्व दे० आगम/६/४ अतीन्द्रिय पदार्थोंके विषयमें छद्मस्थ जीवोंके द्वारा
मोहनीयके उदयसे तत्त्व श्रद्धानमें चल, मल व अगाढ दोष लगते कतिपत युक्तियोंसे रहित निर्णयके लिए हेतुता नहीं पायी जाती।
हैं। वह जीव आप विशेष न जानता हुआ अज्ञात गुरुके निमित्तै इसलिए उपदेश को प्राप्त करके निर्णय करना चाहिए।
असत्का भी श्रद्धान करता है। परन्तु सर्व ज्ञकी आज्ञा ऐसे ही है पं.ध./उ./१०४५ सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रागेवात्रापि दर्शिताः । नित्यं
ऐसा मानकर श्रद्धान करता है, अतः सम्यग्दृष्टि ही है। जिनोदितर्वाक्यातुं शक्या न चान्यथा 1१०४५॥ = पहले भी
४. असत्का श्रदान करनेसे सम्यश्वमें बाधा नहीं कहा है कि परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ, राम-रावणादिक सुदीर्घ अतीत कालवी और मेरु आदि दूरवर्ती पदार्थ सदैव जिनवाणीके भाती। द्वारा ही जाने जा सकते हैं किन्तु अन्यथा नहीं जाने जा
भ, आ./वि./३२/१२२/१ स जीवः सम्मादिट्ठी...प्रतीतपदार्थकत्वमासकते ११०४५
दर्शितं । श्रद्धहति श्रद्धानं करोति असत्यमप्यर्थं अयाणमाणे अनव३. सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टिके श्रद्धानमें अन्तर
गच्छन् । किं । विपरीतमनेनोपदिष्टमिति । गुरोर्यारव्यातुरस्यायमर्थ
इति कथनान्नियुज्यते प्रतिपत्त्या श्रोता अनेन वचनेन इति नियोगः १. मिथ्याष्टिकी प्ररूपणापर सम्यग्दृष्टिको श्रद्धान नहीं कथनं । सर्वज्ञप्रणीतस्यागमस्यार्थः आचार्य परंपरया अविपरीतः श्रुतोहोता।
ऽवधृतश्चानेन सूरिणा उपदिष्टो ममेति सर्व ज्ञाज्ञाया रुचिरस्यास्तीति ।
आज्ञारुचितया सम्यग्दृष्टिर्भवत्येवेति भावः । “यह सम्यग्दृष्टि प.ध/उ./५६१ सूक्ष्मान्तरितदूराथें दर्शितेऽपि कुदृष्टिभिः । नाल्प- जीव असत्य पदार्थका भी श्रद्धान करता है, परन्तु वह तबतक असत्य स्ततः स मुह्येत किं पुनश्चेद्बहुश्रुतः ।५६१। -मिथ्यादृष्टियों द्वारा पदार्थ के ऊपर श्रद्धान करता है जबतक वह 'गुरुने मेरेको असत्य सूक्ष्म, दूरस्थ व अन्तरित पदार्थों के दिखानेपर भी अल्पज्ञानी सम्य. पदार्थ का स्वरूप कहा है' यह नहीं जानता है। जबतक वह असत्य ग्दृष्टि मोहित नहीं होता है। यदि बहुश्रुत धारक हुआ तो फिर पदार्थका श्रद्धान करता है तब तक उसने आचार्य परम्पराके अनुसार भला क्योंकर मोहित होगा।
जिनागमके जीवादि तत्त्वका स्वरूप कहा है और जिनेन्द्र भगवान की
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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