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'शौच
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मनोऽतिशुद्रोदधतः किं बहुशोऽपि शुद्धयति सुरापूरप्रपूर्णो घटः ॥ ६५ ॥ यदि प्राणीका मन मिथ्यात्वादि दोषोंसे मलिन हो रहा है तो गंगा, समुद्र एवं पुष्कर आदि सभी तीर्थों में सदा स्नान करनेपर भी प्रायः करके वह अतिशय विशुद्ध नहीं हो सकता ( ठीक भी -मद्य के प्रवाहसे परिपूर्ण घटको यदि बाह्यमें अतिशय विशुद्ध जलमें बहुत बार धोया जावे तो भी क्या वह शुद्ध हो सकता है। अर्थात् नहीं । ६५
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४. शौचधर्मके चार भेद
रा.बा./६/६/०/५१६/५ तत्तनिवृचित शौचं चतुमसे - जीवन लोभ, इंद्रियलोभ, आरोग्य सोभ व उपयोग लोभके भेदसे लोभ चार प्रकार है - दे, लोभ) इस चार प्रकार के लोभका त्याग करनेसे शौच भी चार प्रकारका हो जाता है ( चा सा./६३/२) ।
५. पौच व त्याग धर्म में अन्तर
रा. बा./१/६/२०/२६०/१० शौचवचनात (व्यागस्य) सिद्धिरिति पेट नापि पपत्तेः ॥१०१ असंनिहिते परिग्रहे कर्मोदयशास गर्न उत्पद्यते नित्यं शौचमुक्त त्यागः पुनः संनिहितस्यापायः दानं वा स्वयोग्यम् अथवा संयतस्य योग्यं ज्ञानादिदानं त्याग इत्युच्यते । प्रश्न - शौच वचनसे हो त्याग धर्मकी सिद्धि हो जाती है अतः स्यान धर्मका पृथक निर्देश पर्थ है। उत्तर-नहीं क्योंकि शौचधर्म में परिग्रहके न रहनेपर भी कर्मोदयसे होनेवाली तृष्णाकी निवृति की जाती है पर त्यागमें विद्यमान परिग्रह छोड़ा जाता है। अथवा त्यागका अर्थ स्व योग्य दान देना है। संयतके योग्य ज्ञानादि दान देना श्याग है।
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५. शौच व आकिंचन्य धर्म अन्तर
रा.मा./१/६/७/२६६/१ स्थादेतत्-आर्डिचन्यं वक्ष्यते तत्रास्यावरोधाद शौचग्रहणं पुनरुक्तमिति; तन्नः किं कारणम् । तस्य नैर्मम्यप्रधानस्मात् स्वशरीरादिषु संस्कारापोहार्थ माि
- प्रश्न- आगे आकिंचन्य धर्मका कथन करेंगे, उसीसे इसका अर्थ भी घेर लिया जानेसे शौच धर्मका ग्रहण पुनरुक्त है। उत्तर- ऐसा नहीं है, क्योंकि आर्कियन्यधर्म स्वशरीर आदि संस्कार आदिको अभिलाषा दूर करके निर्ममत्व बढ़ानेके लिए है और शौच धर्म लोभकी निवृलिए अत दोनों
है। ७. शौचधर्म पालनार्थं विशेष भावनाएँ
म.आ./मू./१४२६-१४३०/२१५२ सो आयोग होइ पुरियस्स अडियोगस्स अरविद होने अथ पडिमोस्स १४१६० सजिए अस्था परिहासे तो मे अरथे इत्य कोमज्भ विभओ गहिद विजडेसु । १४३७॥ इह य परत्तए लोए दोसे बहुए य आवहह लोभो । इदि अप्पणी गणित्ता णिज्जेदव्बो' हवदि लोभो १४३८ लोभ करनेपर भी पुण्य रहित मनुष्यको द्रव्य free नहीं है और न करनेपर भी पुण्यवानको पनकी प्राप्ति होती है। इसलिए धन प्राप्ति में आसक्ति कारण नहीं, परन्तु पुण्य ही कारण है ऐसा विचारकर लोभका त्याग करना चाहिए | १४३६ । इस त्रैलोक्य में मैंने अनन्सबार धन प्राप्त किया है, अतः अनन्सबार ग्रहण कर त्यागे हुए इस धनके विषय में आश्चर्य चकित होना फजूल है ।१४३७ इहपर लोक में यह लोभ अनेकों दोषोंको उत्पन्न करता है ऐसा समझकर लोभ कषायपर विजय प्राप्त करना चाहिए।
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प. बा./६/६/२७/५६६/१६ शुच्याचारमिहापि सन्मानयन्ति सर्वे विश्रम्भादयश्च गुणाः समधितिष्ठति सोमभावनाकान्तहृदये नावका समते गुमाद रह चामुत्र चाचिन् व्यसनमान
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श्रद्धान
शुचि आचार वाले निर्लोभ व्यक्तिका इस लोकमें सन्मान होता है। विश्वास आदि गुण उसमें रहते हैं। लोभीके हृदय में गुण नहीं रहते । वह इस लोक और परलोकमें अनेक आपत्तिओं और दुर्गतिको प्राप्त होता है । ( अन. ध. / ६ / २७)
निराश्चक्रेश्वरश्रियम्।
शा./१६/६६-७१ शकेनापीच्या जातु न भर्तृमुदर क्षमाः । लोभाचस्वामिगुरुवृद्धानाबातांश्च जीर्णदीनादीच व्यापाच विगतको लोभात वित्तमारते 1901 ये केचि रिसद्धान्ते दोषाः श्वभ्रस्य साधकाः प्रोक्ताः । प्रभवन्ति निर्विचार ते सोभादेव जन्तुना ॥७१॥ - अनेक मनुष्य यद्यपि अपनी इच्छा से शाकसे पेट भरने को कभी समर्थ नहीं होते तथापि सोभ के बासे चक्रवर्तीकी सो सम्पदाको बाँधते हैं। इस लोभकषायसे पीड़ित हुआ पुरुष अपने मालिक, गुरु, बन्धु, वृद्ध, स्त्री, बालक, तथा क्षीण, दुर्बल, अनाथ, दीनादिको भी निशंकता से मारकर धनको ग्रहण करता है |७०| नरकको ले जानेवाले जो जो दोष सिद्धान्त शास्त्रमें कहे गये हैं मे राम जीवोंके निःकल्या होमसे प्रगट होते हैं। श ( अन. ध. / ६ / २४-२६,३१ ) ।
* अन्य सम्बन्धित विषय
२. शौचधर्म व मनोगुप्तिमें अन्तर । २. दशधर्म निर्देश ।
शौरपुर — कुशय देशका एक नगर । - दे० मनुष्य /४ । श्यामकुमार - असुरकुमार ( भवनवासी देव ) - दे. असुर । श्यामवर-मध्य सोकका रहमो द्वीप व सागर-दे, लोक/२/१ श्रृंखलित- - कायोत्सर्गका एक अतिचार । - दे. व्युत्सर्ग / १ श्रद्धान मोक्षमार्ग में चारित्र आदिको मुल होनेसे श्रद्धाको प्रधान कहा है । यद्यपि अन्ध श्रद्धान अकिंचित्कर होता है तथापि सूक्ष्म पदार्थोंके विषय में आगमपर अन्ध श्रद्धान करनेके अतिरिक्त कोई चारा नहीं । सम्यग्दृष्टिका यह अन्ध श्रद्धान ईषत् निर्णय लक्षणवाला होता है, पर विध्यारिका अपने पक्षी हठ सहित ।
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१. श्रद्धान निर्देश
१. श्रद्धानका लक्षण
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दे. प्रत्यय / १ दृष्टि, श्रद्धा, रुचि, प्रत्यय ये एकार्थ वाची हैं । स सा/आ./ १०० १८ समेति प्रत्ययलक्षणं श्रद्धानमुत्तमरी... आत्माको जैसा जाना वैसा ही है 'इस प्रकारकी प्रतीति है लक्षण जिसका ' ऐसा श्रद्धान उदित होता है ।
प्र. सं./टी./२१/११/१२ श्रद्धानं रुविनिश्चयमेवेत्यमेवेति निय बुद्धिः सम्यग्दर्शनम् । = ( सप्त तत्त्वों में चलमलादि दोषों रहित ) श्रद्धान रुचि निश्चय, अथवा जो जिनेन्द्रने कहा तथा जिस प्रकार बहा है उसी प्रकार है, ऐसी निश्चय रूप बुद्धिको सम्यग्दर्शन कहते हैं ।
पं. ध. /उ. / ४१२ तत्त्वार्थाभिमुखी बुद्धिः श्रद्धा । - उन्मुख बुद्धिको श्रद्धा कहते हैं ।
- ये. गुमि / २ / ५। - दे. धर्म /
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
२. श्रद्धान के अनुसार चारित्र होता है स.श. / ६५-६६
माहिती भावजायते य श्रद्धा चित्तं तत्रैव लीयते । ६५॥ यत्रानाहितः पुंसः श्रद्धा तस्मान्निवर्तते । यस्मान्निवर्तते श्रद्धा कुतश्चित्तस्य तल्ल्यः | १६ | = जिस किसी विषय में पुरुषकी दत्तावधान बुद्धि होती है उसी विषय में उसको श्रद्धा होती है और जिस विषयमें श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है
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- तत्त्वार्थोंके विषय में
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