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शुको दन
शुभनन्दि
३. शुभ-अशुभ प्रकृतियोंकी बन्ध, उदय, सत्त्व प्ररूपणाएँ। ।
-दे. वह वह नाम। ४. पुण्य-पाप प्रकृति सामान्य
- दे. प्रकृतिबंध/२।
उदगमोसादने षणादोषरहितता ममेदं इत्यपरिग्राह्यता च वसतिसंस्तरयोः शुद्धिस्तामुपगतेन उद्गमादिदोषोपहतयोर्वसतिसंस्तरयोस्यागः कृत इति भवत्युपधित्यागः । उपकरणादीनामपि उद्गमादिरहितता शुद्धिस्तस्यां सत्या उद्दगमादिदोषदुष्टानां असंयमसाधजानी ममेदं भावमूलानां परिग्रहाणा त्यागोऽस्त्येव । संयतबयावत्यकमजता यावृत्यकारिशुद्धिः सत्यां तस्यां असंयता अक्रमज्ञाश्च न मम वैयावश्यकरा इति स्वीक्रियमाणास्त्यक्ता भवन्ति । १. सालोतना शद्धिः- माया और असत्य भाषणका त्याग करना यह आलोचना शुद्धि है। २. शय्या व संस्तर शुद्धि-उदगम, उत्पादन. ऐषणा दोषोंसे रहित यह मेरा है ऐसा भाव वसतिकामें और संस्तरमें होना यह वसति-संस्तरशुद्धि है। इस शुद्धिको जिसने धारण किया है उसने उद्गम उत्पादनादि दोषयुक्त वसतिकाका त्याग किया है, ऐसा समझना चाहिए। इसलिए इसमें उपधिका भी त्याग सिद्ध हुआ समझना चाहिए। ३. उपकरण शुद्धि-पिछी, कमण्डलु वगैरह उपकरण भी उद्गमादि दोष रहित हों तो वे शुद्ध हैं, उद्गम आदि दोषोंसे अशुद्ध उपकरण असंयमके साधन हो जाते हैं। उसमें ये मेरा है ऐसा भाव उत्पन्न होता है अतः वे परिग्रह हैं, उनका त्याग करना यह उपकरण शुद्धि है। ४. वैयावृत्यकरण शुद्धि-साधु जनकी वैयावृत्त्यकी पद्धति जान लेना यह वैयावृत्य करने वालोंकी शुद्धि है यह शुद्धि होनेसे असंयत लोक अक्रमज्ञ लोग मेरा वैयावृत्य करनेवाले नहीं हैं ऐसा समझकर त्याग किया जाता है। * अन्य सम्बन्धित विषय १. आहार शुद्धि
-दे. आहार/१/२ २. भिक्षा शुद्धि
-दे. भिक्षा/११ ३. प्रतिष्ठापन, ईर्यापथ, व वचन शुद्धि -दे, समिति/१। ४. शयनाशन शुद्धि
-दे. वसतिका। शुद्धोदन-महात्मा बुद्ध के पिता थे (द, सा./२७ प्रेमी जी.)। शुद्धोपयोग-दे. उपयोग/II/२ । शुभ-१. शुभ व अशुभ नामकमका लक्षण स, सि./८/११/३६२/१ यदुदयाद्रमणीयत्वं तच्छुभनाम । तद्विपरीतमशुभनाम । -जिसके उदयसे रमणीय होता है वह शुभ नामकर्म है। इससे विपरीत अशुभ नामकर्म है। (रा. वा./८/११-२७-२८/
५७४/५); ( गो. क./जी.प्र./३३/३०/१)। ध, 4/१,६,१,२८/६४/ जस्स कम्मस्स उदएण अंगोवंगणामकम्मोदय
जणिद अंगाणमुवंगाणं च महत्तं होदितं सुहं णाम। अंगोबंगाणमनहत्त णिवत्तयममुहं णाम ।-जिस कर्मके उदयसे अंगोपांग नामकर्मोदय जनित अंगों और उपांगोंके शुभ ( रमणीय ) पना होता है, वह शुभनामकर्म है। अंग और उपागोंके अशुभताको उत्पन्न करनेवाला अशुभ नामकर्म है। ध. १३/५.५,१०१/३६५/१२ जस्स कम्मस्सुदएण चक्कन टि-बलदेव-वासुदेव
तादिरिद्धीणं सूचया संखं कुसारविंदादओ अंग-पच्चंगेसु उप्पज्जंति तं सुहणामं । जस्स कम्मस्सुदएणं असुहलकवणाणि उपज्जति तममुहणामं ।-जिस कर्मके उदयसे चक्रवर्तित्व, बलदेवत्व, और वासुदेवत्व आदि ऋद्धियोंके सूचक शंख, अंकुश और कमल आदि चिह्न अंग-प्रत्यंगों में उत्पन्न होते है वह शुभ नामकर्म है। जिस कर्म के उदयसे अशुभ लक्षण उत्पन्न होते हैं वह अशुभ नामकर्म लक्षण है। २. अन्य सम्बन्धित विषय १. अशुभसे निवृत्ति शुभमें प्रवृत्तिका नाम ही चारित्र है
-(दे. चारित्र/१/१२)। २. मनःशुद्धि ही वास्तविक शुद्धि है। -दे, साधु/३।
शभकोति-काष्ठा संघ के माथुरगच्छ में देवकीर्ति के शिष्य । कृति-शान्तिनाह चरिउ । समय-- देवकीर्ति ने वि.११४१ में मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई । तदनुसार वि. श. १५ । (ती./३/४१२) ।। शुभचन्द्र-१.आप राजा मुडज तथा भत हरिके भाई थे, जिनके लिये विश्वभूषण भट्टारक ने अपने 'भक्तामर चरित्र' की रत्थानिका में एक लम्बी-चौड़ी कथा लिखी है। ये पंचविंशतिकार पद्मनन्दि (ई.श.११ का उत्तरार्ध) के शिक्षा गुरु थे। कृति-ज्ञानार्णव । समय-वि. १०६०-११२५ (ई. १००३-१०६८)। (आ. अनु./प्र. १२/ए. एन. उप.); (ती./३/१४८, १५३)। २. नन्दि संघ देशीयगण, दिवाकरमन्दि के शिष्य और सिद्धान्तदेव के गुरु । पोयसल नरेश विष्णुवर्धन के मन्त्री गंगराज ने इनके स्वर्गवास के पश्चात् इनकी निषधका मनवाई और इन्हें 'धवला' की एक ताड़पत्र लिपि भेंट की। समय-ई.१०६३११२३ । प.सं./प्र./H. L. Jain); (दे. इतिहास/७/10। ३. नन्दिसंघ के देशीयगणमें मेषचक्र त्रैविद्य के शिष्य जिनकी समाधि ई. १९४७ में हुई । (दे. इतिहास/७/५)। ४. तखानुशासन के कर्ता तथा नागसेन के शिक्षागुरु तथा देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य । समय--वि.१२२० (ई. १९५३) में स्वर्गवास । अत: बि. १२९५ (ई. १९५८-१९८५)। (ती./३/१४८); (दे इतिहास/७/६) । ५. 'नरपिंगल' के रचयिता एक कन्नड़ आयुर्वेदिक विद्वान् । समय-ई. श.१२ का अन्त । (ती-/४/३११)। . नन्दि संघ देशीयगण में गण्डविमुक्त मालधारी देव के शिष्य। समय-श.११६०(ई. १२५८) में स्वर्गवास । (ती./३/१४८), (दे. इतिहास/७/१)। ७. पद्मनन्दि पण्डित नं.८ के गुरु । समय-वि १३७० में स्वर्गवास । तदनुसार वि. १३४०-१३७० (ई. १२८३-१३१३) (पं.वि./प्र.२८/AN.UP).नन्दिसंध बलात्कार गणकी गुर्वावलीक अनुसार आप विजय कीर्ति के शिष्य और लक्ष्मीचन्द्र के गुरु थे। पभाषा कविकी उपाधिसे युक्त थे। न्याय, पुराण, कथा-पूजा आदि विषयोंपर अनेक ग्रन्थ रचे थे। कृति-१ प्राकृत व्याकरण, २ अंग पण्णत्ति, ३ शब्द चिन्तामणि, ४ समस्या बदन विदारण, ५ अपशब्द खण्डन,६तत्त्व निर्णय, ७ स्याद्वाद, स्वरूप सम्बोधन वृत्ति, ह. अध्यात्म पद टीका, १० सम्यक्त्व कौमुदी, ११ सुभाषितार्णव, १२ सुभाषित रत्नावली, १३ परमाध्यात्मतरंगिनीकी संस्कृत टीका, १४ स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षाकी संस्कृत टीका (माघ वि. १६१३) १५ पाण्डवपुराण (वि. १६०८, ई. १५५१), १६ करकण्ड चरित्र (ई. १५५४), १७ चन्द्रप्रभ चरित्र, १८ पद्मनाभ चरित्र, १६ प्रद्य म्न चरित्र, २० जीवन्धर चरित्र, २१ चन्दन कथा, २२ नन्दीश्र कथा, २३ पार्श्वनाथ काव्य पंजिका, २४ त्रिश्क चतुर्विशति पूजा, २५ सिद्धार्चन, २६ सरस्वतीपूजा, २७ चिन्तामणि पूजा, २८ कर्म दहन विधान, २६ गणघर वलय विधान, ३० पल्योपम विधान, ३१ चारित्र शुद्धि विधान, २ चतुस्त्रिशदधिक् द्वादशशत व्रतोद्यापन, ३३ सर्वतोभद्र विधान, ३४ समवशरण पूजा, ३५ सहस्रनाम, ३६ विमान शुद्धि विधान, ३७ प, आशाधरपूजा वृत्ति कुछ स्तोत्र आदि । समय-वि. १५७३-१६१३ (ई. १५१६-१५५६); (प.प्र./प्र. ११८ A.N.Up.); (द्र. सं./प्र.११ पं. जवाहरलाल); (पा. पु/प्र.१. A.N Up.); (जै./१/४५६)।-दे. इतिहास/७/४ ।
शुभनान्द-आप बप्पदेवके शिक्षा गुरु तथा पटवण्डागमके ज्ञाता
थे। रविनन्दिके सहचर थे। समय-डा. नेमिचन्द्र के अनुसार वी. नि.श.-4 (ई.श.१) (दे. परिशिष्ट)।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
भा०४-६
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