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शौच
शरय
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शुभयोग शुभयोग-दे. योग/२।
२. शोक अरति पूर्वक होता है शुभोपयोग-दे. उपयोग/u/8 |
ध. १२/४,२,७,१००/५७/२ कुदो। अरदिपुरगमत्तादो। कधमरदिपुरशुभ्र-भरतक्षेत्रका एक नगर-दे. मनुष्य/४।
गमत्तं । अरदीए विणा सोगाणुप्पत्तीए। क्योंकि, वह (शोक)
अरति पूर्वक होता है। प्रश्न - वह अरति पूर्वक कैसे होता है।' शुष्क-भरतक्षेत्र आर्य स्खण्डकी एक नदी-दे. मनुष्य/४ ।
उत्तर- क्योंकि, अरतिके बिना शोक नहीं उत्पन्न होता है। शूद्र-दे. वर्ण व्यवस्था/४
३. शोकका उस्कृष्ट उदय काल शून्य-१, सर्व द्रव्योंका अभाव शून्य दोष कहलाता है। (पं.ध./
घ. १२/४.२,७,१०१/१७/४ सोगो उकस्सेण छम्मासमेत्तो चेव । शोकपू./१४,६१३); २. जीवको कथंचित् शून्य कहना-दे. जीव/१/३,
का उत्कृष्ट उदय काल छह मास पर्यन्त ही है। ३. सांध्य साधन व उभय विकल दृष्टान्त-दे. दृष्टांत । शून्यनय-शून्याशून्य नय-दे. नय/11५ ।
* अन्य सम्बन्धित विषय शून्यध्यान-दे, शुक्लध्यान/१।
१. शोक द्वेष है
-दे. कषाय/४ शन्य परिकमाष्टक-दे. गणित/II/2/२,१६i
२. शोक प्रकृतिके बन्ध योग्य परिणाम -दे. मोहनीय/२/६ । शन्यवाद-१. मिथ्या शून्यवादका स्वरूप
शोधित-गणितकी व्यकलन विधिमें मूल राशिको ऋणराशि करि यु. अनु./२६ व्यतीत-सामान्य-विशेष-भावाद विश्वाभिलापार्थ
शोधित कहा जाता है -दे. गणित/11/१/४ । विकल्पशून्यम् । खपुष्पवत्स्यादसदेव तत्त्वं प्रबुद्धतत्वाद्भवतः
शोन-पूर्वी उत्तर आर्य खण्डको एक नदी-दे. मनुष्य/४ । परेषाम् ।२६.हे प्रबुद्ध तत्व बीर जिन! आप अनेकान्तवादीसे भिन्न दूसरोंका सर्वथा सामान्य भावसे रहित, सर्वथा विशेष शौच-1. शौच सामान्यका लक्षण भावसे रहित तथा सामान्यविशेष भाव दोनोंसे रहित जो तत्त्व है वह
स. सि./६/१३/३३६/४ लोभप्रकाराणामुपरमः शौचम् । = लोभके प्रकारोंसम्पूर्ण अभिलाषों तथा अर्थ विकल्पोंसे शून्य होनेके कारण आकाशपुष्पके समान अवस्तु ही है। (और भी-दे. बौद्ध दर्शनमें
का त्याग करना शौच है ( रा. वा./६/६/१०/५२३/४ )। महायान)।
२. शौच धर्मका लक्षण शूर-१. भरत क्षेत्र आर्य खण्डका एक देश-दे. मनुष्य/४ । २. राजा
ना. अ./७५ करवाभावणिवित्ति किच्चा वेग्गभावणाजुत्तो। जो वदृदि यदुका पुत्र था तथा नेमिनाथ भगवानका बाबा था। इसने शौर्य पुर
परममुणी तस्स दु धम्मो हवे सौर्च १७५/- जो परममुनि इच्छाओंको बसाया था।-दे. इतिहास १०/१०॥
रोककर और वैराग्य रूप विचारोंसे युक्त होकर आचरण करता है शूरसेन-मथुराका समीपवर्ती प्रदेश । गोकुल वृन्दावन और आगरा उसको शौच धर्म होता है। इसोमें है (म. पु./प्र.२० पन्नालाल )।
स. सि./६/६/४१२१६ प्रकर्ष प्राप्तलोभान्निवृत्तिः शौचम् । = प्रकर्ष प्राप्त शेषवत् अनुमान-दे. अनुमान/१।
लोभका त्याग करना शौचधर्म है। (रा. वा./8/६/५/५६५/२८),
(चा. सा./६२/४)। शषवता-रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवी-दे. लोक ५/१३. भ. आ./वि./१६/१४४/१४ ट्रव्येषु ममेदं भावमलो व्यसनोपनिपातः शक्षस, सि./६/२४/१४२/८ शिक्षाशीलः शैक्षः । - शिक्षा शील सकल इति ततः परित्यागो लाघवं । -धनादि वस्तुओं में ये मेरे हैं (साधुः) शैक्ष कहलाता है।
ऐसो अभिलाष बुद्धि ही सर्व संकटोंमे मनुष्यको गिराती है इस रा. वा./६/२४/६/६२३/१७ श्रुतज्ञानशिक्षणपरः अनुपरवतभावनानिपुणः ममत्वको हृदयसे दूर करना ही लाघव अर्थात् शौच धर्म है।
शैक्षक इति। - श्रुतज्ञानके शिक्षण में तत्पर और सतत व्रत भावनामें त. सा./५/१६-१७ परिभोगोपभोगत्वं जीवितेन्द्रियभेदतः ।१६। चतुनिपुण ( साधु ) शैक्ष है (चा. सा./१५१/२) ।
विधस्य लोभस्य निवृत्तिः शौचमुच्यते ।१७ -भोग व उपभोगका, शेल-सुमेरु पर्वतका अपरनाम-दे, सुमेरु ।
जीनका, इन्द्रियविषयोंका; इन चारों प्रकारके लोभके त्यागका नाम
शौचधर्म है। शैलकर्म-दे. निक्षेप/४।
का. अ./मू./३६७ सम-संतोस-जलेणं जो धोवदि तिव्व-लोह मल जं। शल भन्द-यक्ष जातिके व्यन्तर देवोंका एक भेद-दे. यक्ष ।
भोयण-गिद्धि-विहीणो तस्स सउच्च हवे विमलं ।३६७। जो सम
भाव और सन्तोष रूपी जलसे तृष्णा और लोभ रूपी मलके समूहको शेला-नरककी तृतीय पृथिवी-दे. नरक/५॥
धोता है, तथा भोजनकी गृद्धि नहीं करता उसके निर्मल शौच धर्म शेवदर्शन-१, शुद्धाद्वैतका अपर नाम । दे. वेदान्त/७१२. वैदिक होता है।
दर्शनका स्थूलसे सूक्ष्मको ओर विकास-दे. दर्शन (षड्दर्शन )। पं.वि./१/९४ यत्परदारार्थादिषु जन्तुषु निःस्पृहमाहिसक चेतः । शोक-१. शोक व शोक नामकमका लक्षण
दुश्छेदयान्तर्मलहत्तदेव शौचं परं नान्यद श-चित्त जो परस्त्री
एवं परधनकी अभिलाषा न करता हुआ षट् काय जीवोंकी हिंसासे स. सि./६/११/३२८/१२ अनुग्राहकसंबन्धविच्छेदे वैक्लव्यविशेषः
रहित होता है, इसे ही दुर्भेद्य अभ्यन्तर कलुषताको दूर करनेवाला शोकः ।
उत्तम शौचधर्म कहा जाता है, इससे भिन्न दूसरा शौचधर्म नहीं स. सि./4/8/३८६/१ यद्विपाकाच्छोचनं स शोकः । -१. उपकार
करनेवालेसे सम्बन्धके टूट जानेपर जो विकलता होती है वह शोक है ( रा. वा./६/११/२/५१६/२१) । २. जिसके उदयसे शोक होता है
३. गंगादिमें स्नान करनेसे शौचधर्म नहीं वह शोक (नामकर्म) है। (रा. वा./८/४/४/५७४/१८), (ध.६/ पं. वि./१/१५ गङ्गासागरपुष्करादिषु सदा तीर्थेषु सर्वेष्वपि स्नातस्यापि १,६-१,२४/४७/८), (ध. १३/५,५,६६/३६१/१२) ।
न जायते तनुभृतः प्रायो विशुद्धिः परा । मिथ्यात्वादिमलीमसं यदि
है
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जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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