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शुद्धि
मेवोंके समूह आच्छादित रिसाए विशावाह भूमिकापात ( कुहरा ), संन्यास, महोपवास, नन्दीश्वर महिमा और जिनमहिमा इत्यादिके अभावको कालशुद्धि कहते हैं । यहाँ कालशुद्धि करनेके विधानको कहते हैं। वह इस प्रकार है - पश्चिम रात्रि के सन्धिकाल में क्षमा कराकर बाहर निकल प्रासुक भूमिप्रदेश में कोरस पूर्वाभिमुख स्थित होकर नौ गाथाओंके प्रचारका से पूर्व दिशाको शुद्ध करके फिर दक्षिण रूप पलट कर इसने ही कालसे दक्षिण, पश्चिम व उत्तर दिशाओंको शुद्ध कर लेनेपर ३६ गाथाओं के उच्चारण काल से अथवा १०८ उच्छ्वास कालसे कालशुद्धि समाप्त होती है। अपराह्न कालमें भी इस प्रकार ही कालशुद्धि करना चाहिए। विशेष इतना है कि इस समयकी कालशुद्धि एकएक दिशाओं में सात-सात गाथाओं के उच्चारण कालसे सीमित है, ऐसा जानना चाहिए। यहाँ सब गाथाओंका प्रमाण २८ अथवा उच्छ्वासका प्रमाण ८४ है । पश्चात् सूर्यके अस्त होनेसे पहले क्षेत्र शुद्धि करके सूर्य अस्त हो जानेपर पूर्वके समान कालशुद्धि करना चाहिए। विशेष इतना है कि यहाँ काल बीस २० गाथाओं के उच्चारण प्रमाण अथवा ६० उच्छवास प्रमाण है । ( अर्थात प्रत्येक दिशामें ५ गाथाओं का उच्चारण करे) । (मु. आ / २७३) । क्रिया कोष / प्रथम रसोईके स्थान चक्की उखरी द्वय त्रय जान । चौथो अनाज सोधने काज जमीन चौका पंचम मढ | छठमें आटा छनने सोय सप्तम थान सयनका होय । पानी थान सु अष्टम जान सामायिकका नवमों थान ।
५. दर्शन ज्ञान व चारित्र शुद्धियोंके लक्षण
सु.आ./गा. चक्तजीविद माऊल माणुससम सारं भोगा धम्मम्मि उवद्विदमदीया ७०३० पिम्मालियाणि च पयति वीरपुरिसा विरलकामा मिहावासे 100 उसाहमिद वायबद्धकच्छा य । भावाणुरायरत्ता जिणपण्णत्तम्मि धम्मम्मि | 5991 अपरिग्गहा अणिच्छा संतुट्ठा सुट्टिदा चरितमि । अवि णीवि सरीरेण कति मुणी ममत्ति ते । ७८३ | ते लढणाण चक्खू णाणुज्जोएग दिट्ठपरमहा विदालपरवकमा साधू २) उवलद्वपुण्णपावा जिणसासणगहितमुणिदपज्जाला । करचरणसंयुगा झाणुता मुनी होति धा जिणेहा अप्पणो सरीरम्मि । ण करंति किंचि साहू परिसंठप्पं सरीरम्मि ।८३६ | उप्पण्णम्मिय वाही सिरवेयण कुक्खिवेयणं चैव । अधिपति सुधिया कार्याणि १६ ि अप्पमत्ता जमसमिदो माजोगे तचरणरणजुत्ता हति सवणा समिपावा |८६२ । विसएसु पधावंता चवला चंडा तिदंडगुत्ते हि । इंदियघोरा घोरा वसम्मि ठविदा व सिदेहिं । ७३ | ण च एदि विणिस्सरिदु मगहस्थी काण मारिबंधणीदो मद्धों व पडो विरारज्जू हि धीरेहिं | ७६ एदे इंदियतुरया पयदीदोसेण चोइया संता । उम्मगं णेंति रह करेह मणपग्गहं बलियं ८७६१ - १, लिंग शुद्धि-अस्थिर नाशसहित इस जीवनको और परमार्थ रहित इस मनुष्य जन्मको जानकर स्त्री आदि उपभोग तथा भोजन आदि भोगों से अभिलाषा रहित हुए निर्ग्रन्यादि स्वरूप चारित्र में दृढ़ बुद्धिवाले, घर के रहने से विरक्त चित्तवाले ऐसे वीर पुरुष भोग में आये फूलोंकी तरह गाय पोहा आदि-धन-सोना इनसे परिपूर्ण ऐसे बान्धव जनोंको छोड़ देते हैं । ७७३-७७४५ तपमें तल्लीन होने में जिनकी बुद्धि निश्चित है जिन्होंने पुरुषार्थ किया है, कर्म के निर्मूल करनेमें जिन्होंने कमर कसी है, और जिनदेव कथित धर्म में परमा भक्ति उसके प्रेमी हैं, ऐसे मुनियोंके लिंगशुद्धि होती है । ७७७ २. व्रतशुद्धि-आश्रय रहित, आशा रहित, सन्तोषी चारित्र में तत्पर ऐसे मुनि अपने शरीर में ममत्व नहीं करते ।७८३
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शुद्धि
३. ज्ञानशुद्धि- जिन्होंने ज्ञान नेत्र पा लिया है, ऐसे साधु हैं, ज्ञानरूपी प्रकाश जिन्होंने राम लोकका सार जान लिया है. पदार्थों शंका रहित, अपने बल के समान जिनके पराक्रम है ऐसे साधु हैं ।
२६ जिन्होंने पुण्य पापका स्वरूप जान लिया है, जिन मतमें स्थित सब इन्द्रियों का स्वरूप जिन्होंने जान लिया है, हाथ, पैर, कर से ही जिनका शरीर ढँका हुआ है और ध्यान थमी हैं । ८१३॥ ४. उज्भणशुद्धि पुत्र स्त्री आदिमें जिनने प्रेमरूपी बन्न काट दिया है और अपने शरीर में भी ममृता रहित ऐसे साधु शरीरमें कुछ भी स्नानादि संस्कार नहीं करते । ८३६। ज्वर रोगादिक उत्पन्न होनेपर भी मस्तक में पीड़ा, उदरमें पीड़ा होने पर भी चारित्र परिणाम बाले में मुनि पीडाको सहन कर लेते हैं, परन्तु शरीरका उपचार करनेकी इच्छा नहीं करते । ३ ५ तपशुद्धि - वे मुनीश्वर सदा संयम, समिति, ध्यान और योगोंमें प्रमाद रहित होते हैं और तप चरण तथा तेरह प्रकार के करणों में उद्यमी हुए पापके नाश करने वाले होते हैं । ८६२। ६, ध्यान शुद्धि-रूप, रसादि दोड़ते चलोकों भयंकर ऐसे इन्द्रियरूपी चोर मनवचनकाय गुप्तित्राले चारित्रमें उद्यमी साधुजनोंने अपने वशमें कर लिये हैं । ८७३| जैसे मस्त हाथी बारिबन्धकर रोका गया निकलनेको समर्थ नहीं होता, उसी तरह मन रूपी हाथी ध्यानरूपको प्राप्त हुआ धीर अति प्रचण्ड होने पर भी सुनियों कर वैरागरूपी रस्से कर संयम बन्दको प्राप्त हुआ निकलने में समर्थ नहीं हो सकता ।०६। ये इन्द्रिय रूपी घोड़े स्वाभाविक राग-द्वेष कर मेरे हुए धर्मध्यान रूपी रथको कुमार्ग में ले जाते हैं, इसलिए एकाग्र मनरूपी लगामको बलवान करो १८७६६
भ. जा./वि./ १६०/३० / १ काते पठनमित्यादिका ज्ञानशुद्धिः वस्य सत्यां अकालपठनाद्याः क्रिया ज्ञानावरणमूलाः परित्यक्ता भवन्ति । पञ्चविंशति भावनाश्चारित्रशुद्धिः सत्यां तस्यां अनिगृहीतमनःप्रचारादिशुभपरिणामोऽभ्यन्तरपरिहरत्यक्तो भवति |...मनसायययोगनिवृत्ति जिनगुणानुरागः वन्द्यमानश्रुतादिगुणानुवृत्तिः कृतापराधविषया निन्दा, मनसा प्रत्याख्यानं, शरीरासारानुपकारित्वभावना, वश्यद्विरस्यां सत्यो अशुभयोगो जिनगुणाननुरामः श्रुतारिमाहायैनादर अपराधानुसा अप्रत्याख्यान शरीरममता चेत्यमी दोषा परिग्रहनिराकृता भवन्ति । =१ ज्ञानशुद्धि-योग्य काल में अध्ययन करना, जिससे अध्ययन किया है। ऐसे गुरुका और शास्त्रका नाम न छिपाना इत्यादि रूप ज्ञानशुद्धि है। यह शुद्धि वरमायें होनेसे अकाल पठनाविक किया को कि ज्ञानावरण कर्मासवका कारण है त्यागी जाती है । २. चारित्रशुद्धिप्रत्येक पाँच-पाँच भावनाएं है, पाँच मतोंकी पचीस भावनाएँ हैं इनका पालन करना यह चारित्रशुद्धि है । इन भावनाओंका त्याग होनेसे मन स्वच्छन्दी होकर अशुभ परिणाम होते हैं। ये परिणाम अभ्यन्तर परिग्रह रूप हैं । व्रतों की पाँच भावनाओं से अभ्यन्तर परिग्रहों का त्याग होता है । ३. आवश्यक शुद्धि - सावद्य योगों का त्याग, जिन गुणोंपर प्रेम, वंद्यमान आचार्यादिके गुणोका अनुसरण करना, किये हुए अपराधोंकी निन्दा करना, मनसे अपराधोंका त्याग करना, शरीरकी असारता और अपकारीपनेका विचार करना यह सब आवश्यकशुद्धि है। यह शुद्धि होनेपर अशुभ योग, जिन गुणोंपर अप्रेम, आगम, आचार्यादि पूज्य पुरुषों के गुणोंमें अप्रीति, अपराध करनेपर भी मनमें पश्चात्ताप न होना, अपराधका त्याग न करना, और शरीरपर ममता करना ये दोष परिग्रहका त्याग करनेसे नष्ट होते हैं ।
६. सल्लेखना सम्बन्धी शुद्धियोंके लक्षण भ.आ./वि./९६६/१०१/२ मायामृबाराहाता आटोचना शुद्धिः ...
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