________________
शुचि
३८
तै इस पहिले ध्यान विषै, अर्थ व्यंजन योगके विषय उपयोगकी २. अन्य सम्बन्धित विषय पलटनी बिना इच्छा होय है।
१. जीवमें कार्यचित् शुद्धत्व व अशुद्धत्व । --दे. जीव/३। ३.योग संक्रान्ति बन्धका कारण नहीं रागादि हैं।
२. शुद्धाशुद्ध पारिणामिक भाव ।
-दे. पारिणामिक। पं.ध./उ./८८० व्याप्तिबन्धस्य रागाचे व्याप्तिविकल्पैरिव। विकरुपैर
शुद्ध चेतना-दे. चेतना/१॥ स्य चाव्याप्ति न व्याप्तिः किल तैरिव ८८०- रागादि भावो के साथ बन्धकी व्याप्ति है किन्तु जैसे ज्ञान के विकल्पोके साथ अव्याप्ति है
शुद्धद्रव्याथिक नय-दे, नय/IVIR I वैसे ही रागादिके साथ बन्धकी अव्याप्ति नहीं, अर्थात् विकल्पोंके शुद्धनय-दे. नय/५/४। साथ इस बन्धकी अव्याप्ति ही है, किन्तु रागादिके साथ जैसी बन्धकी व्याप्ति है ऐसी बन्धके विकल्पोंके साथ व्याप्ति नहीं हैं १८८०।
शुद्ध निश्चयनय-दे. नय/V/१ ।
शुद्ध पर्यायाथिक नय-दे. नय/IV/४ | चि-१. रा. वा/8/७/६/६०२/४ शुचितं द्विविधम-लौकिक लोकोत्तरं चेति । तत्रात्मन' प्रक्षालित कर्ममलक्लङ्कस्य स्वात्मन्य
शुद्धमति-भूत कालीन द्वाविंशति तीर्थकर-दे. तीर्थंकर५ । वस्थानं लोकोत्तरं शुचित्वम् तत्साधनं च सम्यग्दर्शनादि तद्वन्तश्च शुद्धात्म दर्शन-) साधवः तद धिष्ठानानि च निर्वाणभूम्यादोनि तत्प्राप्युपायत्वाच्छचिव्यपदेशमह न्ति । लौकिकं शुचित्वमप्ट विधम्-कालाग्निभस्म
शुद्धात्म स्वरूप- निर्विकल्प समाधि के अपरनाम।
-दे, मोक्षमार्ग/२१५॥ मृत्तिकागोमयसलिलज्ञाननिर्विचिकित्सत्वभेदात् । -लौकिक और शुद्धात्म ज्ञानलोकोत्तरके भेदसे शुचित्व दो प्रकारका है। कर्ममल-कोको धो
शुद्धाद्वैत-दे, वेदान्त/७ । कर आत्माका आत्मामें ही अवस्थान लोकोत्तर शुचित्व है। इसके साधन सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रयधारी साधुजन तथा उनसे अधिष्ठित शुद्धाभदेव-भूतकालीन पाँचवें तीर्थंकर-दे. तीथंकर। निर्माणभूमि आदि मोक्ष प्राप्तिके उपाय होनेसे शुचि हैं। काल, अग्नि, भस्म, मृत्तिका, गोबर, पानी, ज्ञान और निर्विचिकित्सा
शुद्धि-जैनाम्नायमें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भोजनादि आदि रूप अनेक ग्लानिरहितपना, इस प्रकार लौकिक-लाक प्रसिद्ध शुचित्व आठ
प्रकारकी शुद्धियोंका निर्देश है जिनका विवेक यथायोग्य प्रत्येक प्रकार का है (चा. सा./११०/६)।
धर्मानुष्ठानमें रखना योग्य है। रा.वा./4/१२/१०/५२३/४ लोभप्रकाराणामुपरमः शौचम् । = लोभके
१. शुद्धि सामान्यका लक्षण प्रकारोंसे निवृत्ति शौच है। २.पिशाच जातीय व्यन्तर देवों का एक भेद-दे. पिशाच।
स. सा./ता. वृ./३०६:३०७/३८८/१३ दोषे सति प्रायश्चित्तं गृहीत्वा
विशुद्धि कारणं शुद्धिः । = दोष होनेपर प्रायश्चित्त लेकर विशुद्धि शुतभुग-ई. श. ७ के उत्तरार्ध में मान्यखेट के राजा थे । (सि. वि)
वरना शुद्धि कहलाती है। प्र.११ पं. महेन्द्र)।
२. शुद्धिके भेद
१. संयमकी आठ शुद्धियाँ १. शुद्धका लक्षण
रा. वा./६/६/१६/५६६/१ अपहृतसंयमस्य प्रतिपादनार्थः शुद्धयष्टकोपदेशो ध, १३/५०५०५०/२८६/११ वचनार्थगतदोषातीतत्वाच्छदः सिद्धान्तः ।
द्रष्टव्यः । तद्यथा, अष्टौ शुद्धयः-भावशुद्धिः, कायशुद्धिः, विनयशुद्धिः, बचन और अर्थगत दोषों से रहित होने के कारण सिद्धान्तका
ईर्यापथ शुद्धिः, भिक्षाशुद्धिः, प्रतिष्ठापनशुद्धिः शयनासनशुद्धिा. बाक्यनाम शुद्ध है।
शुद्धिश्चेति । = इस अपहृत संयमके प्रतिपादन के लिए ही इन आठ आ. प/६ शुद्ध केवलभावम् । = शुद्ध अर्थात केवलभाव ।
शुद्धियोंका उपदेश दिया गया है-भाव शुद्धि, कायशुद्धि, विनयदे, तत्व/१/१ तत्त्व, परमार्थ, द्रव्य, स्वभाव, परमपरम, ध्येय शुद्ध और
शुद्धि, ईर्थापथ शुद्धि, भिक्षाशुद्धि, प्रतिष्ठापन शुद्धि, शयनासन शुद्धि परम एकार्थवाची हैं।
और वाक्य शुद्धि । (रा. वा./८/१/३०/६६४/२६); (चा, सा./७६/१); स. सा./आ./६ अशेषद्रव्यान्तरभावेश्यो भिन्नत्वेनोपास्यमानः शुद्ध
(अन. ध./६/४६)। इत्यभिलप्यते । -समस्त अन्य द्रब्योंके भावाँसे भिन्न उपासित २. सल्लेखना सम्बन्धी अन्तरंग व बहिरंग शुद्धियाँ होता हुआ 'शुद्ध' कहलाता है।
भ, आ./मू./१६६-१६७/३७६-३८० आलोयणाए सेज्जसंथारुबहीण भत्तस. सा./ता. वृ./१०२/१६२/१६ निरुपाधिरूपमुपादानं शुद्ध', पीतस्वादि- पाणस्स । वेज्जावच्च कराण य सुद्धी खलु पंचहा होइ ।१६६। अहवा गुणानां सुवर्णवतः अनन्तज्ञानादिगुणानां सिद्रजीववत् । = निरुपाधि दसणणाणचरित्तमुखी य विणय सुद्धी य। आवासयसुद्धी वि य पंच रूप उपादान शुद्ध कहलाता है जैसे--सुवर्ण के पीतल आदि गुण, वियपा हवदि सुद्धी ।१६७५ = आलोचनाकी शुद्धि, शय्या और की भाति सिद्ध जीव के अनन्त ज्ञान आदि गुण ।
संस्तरकी शुद्धि, उपकरणोंकी शुद्धि. भक्तपान शुद्धि, इस प्रकार प. प्र./टो./१/१३ शुद्धो रागादिरहितो। = शुद्ध अर्थात रागादि रहित । वैयावृत्त्यकरण शुद्धि पाँच प्रकारकीद है ।१६६। अथवा दर्शन शुद्धि द्र. सं./टी./२८/८०/१ की चूलिका-मिथ्यात्वलगादिसमस्तविभाव
ज्ञानशुद्धि. चारित्र शुद्धि, विनयशुद्धि, और आवश्यक शुद्धि ऐसी रहितत्वेन शुद्ध इत्युच्यते। -मिथ्यात्व, राग आदि भावों से रहित
पाँच प्रकार की है ।१६७ =(अन. ध.//४२)। होने के कारण आत्मा शुद्ध कहा जाता है। पं.ध./उ./२२१ शुद्ध' सामान्यमात्रखादशुद्ध तद्विशेषतः। -वस्तु
३ स्वाध्याय सम्बन्धी चार शुद्धियाँ सामान्य रूपसे अनुभव में आती है तब वह शुद्ध है, और विशेष भेदोध,६/४,१.५४/२५३/१ एस्थ वक्रवणं तेहि मुणं तेहि वि दव-नेत्त-कालकी अपेक्षासे अशुद्ध कहलाती है।
भ वसुद्धीहि वखाण पढणवावारो कायव्यो। - यहाँ व्याख्यान
शुद्ध
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org