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शुक्लध्यान
४. शंका समाधान
नहीं, और स्वभावसे ही शिथिल परिणाम है । तथा तिनके प्रति मास रुधिरका स्राव होता है, उसकी शंका बनी रहती है इसलिए स्त्रीके ध्यानकी सिद्धि नहीं है ।२६। है. चारों ध्यानोंका फल १. पृथक्त्व वितर्क वीचार ध. १३/१.४.२६/७४/१ एवं संवर-णिज्जरामरसुहफलं एदम्हादो णिब्यु
इगमणाणुवलं भादो। इस प्रकार इस ध्यानके फलस्वरूप संघर, निर्जरा और अमरसुख प्राप्त होता है, क्योंकि इससे मुक्तिकी प्राप्ति
नहीं होती। चा. सा./२०६/२ स्वर्गापवर्गगतिफलसंवर्तनीय मिति । - यह ध्यान
स्वर्ग और मोक्षके मुखको देनेवाला है। दे धर्मध्यान/३/५/२ मोहनीय कर्मकी सर्वोपशमना होने पर उसमें
स्थित रखना पृथक्त्व वितर्क बिचार नामक शुक्लध्यान का फल है। ज्ञा./४२/२० अस्याचिन्त्यप्रभावस्य सामथ्यत्सि प्रशान्तधीः । मोहमुन्मूलयत्येव शमयत्यथवा क्षणे ।२०। इस अचिन्त्य प्रभाववाले ध्यानके सामर्थ्यसे जिसका चित्त शान्त हो गया है, ऐसा ध्यानी मुनि क्षण भरमें मोहनीय कर्मका मूलसे नाश करता है अथवा उसका उपशम करता है ।२०॥ २. एकत्व वितर्क अवीचार दे. धर्मध्यान/३/१/२ तीन घाती कोका नाश करना एकत्व वितर्क
अवीचार शुक्लध्यानका फल है। ३. सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती ध. १३/५,४,२६/गा. ७४,७५/८६,८७ तोयमिव णालियाए तत्तायसभायणोदरत्थं वा। परिहादि कमेण तहा जोगजलं झाण जलणेण ।७४। तह बादरतणुविसर्य होगविमं ज्माणमंतबलजुत्तो । अणुभावम्मिणिरु'भदि अवणेदि तदो वि जिणवेज्जो ७६। जिस प्रकार नाली द्वारा जलका क्रमशः अभाव होता है या तपे हुए लोहे के पात्र में क्रमश: जल का अभाव होता है, उसी प्रकार ध्यानरूपी अग्निके द्वारा योगरूपी जलका क्रमशः नाश होता है 1७४। ध्यानरूपी मन्त्रके बलसे युक्त हुआ वह सयोगकेवली जिनरूपी वैद्य बादर शरीर विषयक योग विषको पहले रोकता है और इसके बाद उसे निकाल फेंकता है ७६।
४. सम्मुच्छिन क्रिया निवृत्ति घ. १३/५.४.२६/०८/१ सेलेसियअद्धाए उझोणाए सव्वकम्मविप्पमुक्को एगसमएण सिद्धि गच्छादि । -शैलेशी अवस्थाके कालके क्षीण होनेपर सब कोसे मुक्त हुआ यह जीव एक समयमें सिद्धिको प्राप्त होता है।
निवत्तिता भवति।२११ - प्रश्न--यदि ध्यान में अर्थ व्यंजन योगकी संक्रान्ति होती है तो एकाग्र' बचन कहने में भी अनिष्टका प्रसगसमान, ही है। उत्तर-ऐसा नहीं क्योंकि अपने विषयके अभिमुख होकर पुन: पुनः उसी में प्रवृत्ति रहती है । अग्रका अर्थ मुख्य होता है, अतः ध्यान अनेकमुखी न होकर एकमुखी रहता है और उस मुख में ही संक्रम होता रहता है। अथवा “अङ्गतीति अग्रम् आरमा' इस व्युत्पत्तिमें द्रव्यरूपसे एक आत्माको लक्ष्य बनाना स्वीकृत ही है। ध्यान स्ववृत्ति होता है, इसमें बाह्य चिन्ताओंसे निवृत्ति होती है। ध. १३/५,४,२६/गा. ५२/७६ अंतोमुहुत्तपरदो चिंता-ज्माणं तरं व
होज्जादि । सुचिरं पिहोज्ज बहूवत्थुसं कमे ज्झाणसंताणो ।।२।। ध. १३/५.४,२६/७५/५ अत्यंतरसंचाले संजादे वि चित्तंतरगमणाभावेण
ज्झाणविणासाभावादो। -१. अन्तर्महर्त के बाद चिन्तान्तर या ध्यानान्तर होता है, या चिरकाल तक बहुत पदार्थोंका संक्रम होनेपर भी एक ही ध्यान सन्तान होती है ।५२३ २. अर्थान्तरमें गमन होनेपर भी एक विचारसे दूसरे विचार में गमन नहीं होनेसे ध्यानका विनाश नहीं होता। ज्ञा./४२/१८ अर्थादिषु यथा ध्यानी संक्रामत्यविलम्बितम् । पुनर्व्यावर्त्तते तेन प्रकारेण स हि स्वयम् ॥१८। - जो ध्यानी अर्थ व्यंजन आदि योगों में जैसे शीघ्रतासे संक्रमण करता है, वह ध्यानी अपनेआप उसी प्रकार लौट आता है। प्र.सा./ता, बृ./१०४/२६२/१२ अल्पकालत्वात्परावर्तनरूपध्यानसंतानो
न घटते । अल्प काल होनेसे ध्यान सन्तति की प्रतीति नहीं होती। भा. पा./टी./७८/२२७/२१ यद्यप्यर्थव्यठजनादि संक्रान्तिरूपतया चलन वर्तते तथापि इदं ध्यानं । कस्मात् । एवं विधस्यै बास्य विवक्षितत्वात । विजातीयानेकविकल्परहितस्य अर्थादिसंक्रमेण चिन्ताप्रबन्धस्यैव एतद्यानत्वेनेष्टत्वात् । अथवा द्रव्यपर्यायात्मनो वस्तुन एकत्वात सामान्यरूपतया व्यजनस्य योगानो चै की करणादेकार्थचिन्तानिरोधोऽपि घटते। द्रव्यात्पर्याय व्यन्जनाद्वयञ्जनान्तर योगायोगान्तरं विहाय अन्यत्र चिन्तावृत्ती अनेकार्थतान द्रव्यादेः पर्यायादी प्रवृत्तौ। यद्यपि पृथक्त्व बितर्क वीचार ध्यानमें योगकी संक्रान्ति रूपसे चंचलता वर्तती है फिर भी यह ध्यान ही है क्योंकि इस ध्यान में इसी प्रकारको विवक्षा है और विजातीय अनेक विकल्पों से रहित तथा अर्थादि के संक्रमण द्वारा चिन्ता प्रबन्धक इस ध्यानके ध्यानपना इष्ट है । अथवा क्योंकि द्रव्य पर्यायात्मक वस्तुमें एकपनर पाया जाता है इसलिए व्यंजन व एकीकरण हो जानेसे एकार्थ चिन्ता निरोध भी घटित हो जाता है। द्रव्यसे पर्याय, व्यंजनसे व्यंजनान्तर और योगसे योगान्तर इन प्रकारों को छोड़कर अन्यत्र चिन्तावृत्तिमें अनेकार्थता या द्रव्य व पर्याय आदिमें प्रवृत्ति नहीं है। पं.ध./उ./८४६-८५१ ननु चेति प्रतिज्ञा स्यादर्थादर्थान्तरे गतिः ।
आत्मनोऽन्यत्र तत्रास्ति ज्ञानसंचेतनान्तरम् ।८४६। सत्य हेतरेविपक्षत्वे वृत्तित्वाद व्यभिचारिता। यतोऽत्रान्यात्मनोऽन्यत्र स्यात्मनि ज्ञानचेतना ८५० किंच सर्वस्य सदृष्टेनित्यं स्याज्ञानचेतना । अव्युच्छिन्नप्रवाहेण यद्वारखण्डै कधारया ८५१ -प्रश्न-यदि ज्ञानका संक्रमणात्मकपना ज्ञानचेतना बाधक नहीं है तो ज्ञान चेतनामें भी मतिज्ञानपनेके कारण अर्थ से अर्थान्तर संक्रमण होनेपर आत्माके इतर विषयों में भी ज्ञानचेतनाका उपयोग मानना पड़ेगा ! उत्तरठीक है कि हेतुकी विपक्ष में वृत्ति होनेसे उसमें व्यभिचारीपना आता है। क्योंकि परस्वरूष परपदार्थ से भिन्न अपने इस स्वात्मामें ज्ञान चेतना होती है। तथा सम्पूर्ण सम्यग्दृष्टियोंके धारा प्रवाहमें अथवा अखण्ड धारासे ज्ञान चेतना होती है। २. योग संक्रान्तिका कारण रा. वा, हि/8/४४/७५८ उपयोग क्षयोपशम रूप है सो मनके द्वारा होय प्रवर्ते है । सो मनका स्वभाव चंचल है । एक शेयमें ठहरे नाही। याही
४. शंका समाधान
१. संक्रान्ति रहते ध्यान कैसे सम्भव है स. सि./६/४/४५५/१३ की टिप्पणी-संक्रान्तौ सत्यो कथं ध्यानमिति
चेत् ध्यानसंतानमपि ध्यानमुच्यते इति न दोषः। =प्रश्नसंक्रान्तिके होनेपर ध्यान कैसे सम्भव है : उत्तर-ध्यानकी सन्तति
को भी ध्यान कहा जाता है इसमें कोई दोष नहीं है। रा, वा./६/२७/१६,२१/६२६-६२७/३५ अथमेतत्-एकप्रवचनेऽपि तस्यानिष्टस्य प्रसङ्गतुल्य इति; तन्न; किं कारणम् । आभिमुरम्ये सति पौनःपुन्येनापि प्रवृत्तिज्ञापनार्थत्वात् । अग्रं मुखमिति ह्युच्यमानेऽनेकमुखत्वं निवर्तितं एकमुखे तु संक्रमोऽभ्युपगत एवेति नानिष्टप्राप्ति ११॥ अथवा अतीत्यग्रमात्मेत्यर्थः। द्रव्यार्थ तय कस्मिन्नात्मन्यग्रे चिन्तानिरोधो ध्यानम् । ततः स्ववृत्तित्वात बाह्यध्येयप्राधान्यापेक्षा
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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