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२. शुक्लध्यान निर्देश
घ. १३/१४,२६/८७/६ समुच्छिन्नक्रिया योगो यस्मिन् तत्समुच्छिन्नक्रियम् । समुच्छिन्न क्रियं च अप्रतिपाति च समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपाति ध्यानम् । श्रुतरहितत्वात अबितर्कम् । जीवप्रदेशपरिस्पन्दाभाबादवीचारं अर्थव्यजनयोगसंक्रान्त्यभावाद्वा। जिसमें क्रिया अर्थात योग सब प्रकारसे उच्छिन्न हो गया है वह समुच्छिन्न क्रिय है और समुच्छिन्न क्रिया होकर जो अप्रतिपाती है वह समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपाति ध्यान है। यह भूतज्ञानसे रहित होने के कारण अबितर्क है, जीव प्रदेशों के परिस्पन्दका अभाव होने से अविचार है, या अर्थ, व्यंजन और योगकी संक्रान्ति के अभाव होनेसे अविचार है। द्र.सं./टी./४८/२०४/१ विशेषगोषरता निवृत्ता क्रिया यत्र तद व्युपरतक्रियं च तदनिवृत्ति चानिवर्तकं च तद् व्युपरतक्रियानिवृत्तिसंज्ञ चतुर्थ शुक्लध्यान । -विशेष रूपसे उपरत अर्थात दूर हो गयी है -क्रिया जिसमें वह व्युपरतक्रिय है; व्युपरतक्रिय हो और अनिवृत्ति हो वह व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामा चतुर्थ शुक्ल ध्यान है।
शुक्लध्यान स.सि./३/४४/४५६/८ एवमेकत्ववितर्कशुक्लध्यानवैश्वानरनिग्धयातिकर्मेन्धन... स यदान्तर्मुहुर्त शेषायुष्कः । तदा सर्व बाङ्मनसयोग बादरकाययोगं च परिहाप्य सूक्ष्मकाययोगालम्बनः सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानमास्कन्दितुमर्हतीति । ...समी कृतस्थितिशेषकर्मचतुष्टयः पूर्वशरीरप्रमाणो भूत्वा सूक्ष्मकाययोगेन सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति ध्यानं ध्यायति ।- इस प्रकार एकरव वितर्क शुक्लध्यानरूपी अग्निके द्वारा जिसने चार घातिया कर्म रूपी इंधनको जला दिया है। वह जब आयु कर्ममें अन्तर्मुहूतं काल शेष रहता है...तब सब प्रकारके वचन योग, मनोयोग, और बादर काययोगको त्यागकर सूक्ष्म काययोगका आलम्बन लेकर सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती ध्यानको स्वीकार करते हैं। परन्तु जन उनकी सयोगी जिनकी आयु अन्तमुहूर्त शेष रहती है।... तब ( समुद्घातके द्वारा) चार कर्मोकी स्थितिको समान करके अपने पूर्व शरीर प्रमाण होकर सूक्ष्म काययोगके द्वारा सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति ध्यानको स्वीकार करते हैं ( रा. वा./१/४४/१/६३५/१), (ध. १३/५, ४, २६/८३-८६/१२), (चा. सा./२०७/३) । च, १३/५,४,२६/३/२ संपहि तदिय सुक्कझाण परूवणं कस्सामो। त जहा-क्रिया नाम योगः। प्रतिपतितुं शीलं यस्य तत्प्रतिपाति । तत्प्रतिपक्षः अप्रतिपाति । सूक्ष्म क्रिया योगो यस्मिन तत्सूक्ष्मक्रियम् । सूक्ष्मक्रियं च तदप्रतिपाति च सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानम् । केवलज्ञानेनापसारितश्रुतज्ञानत्वात् तद वितर्कम् । अर्थान्तरसंक्रान्त्यभावात्तदवीचार व्यञ्जन-योगसंक्रान्त्यभावाद्वा । कथं तत्संक्रान्त्यभावः । तदवष्टम्भवलेन विना अक्रमेण त्रिकालगोचराशेषावगतेः।- अब तीसरे शुक्ल ध्यानका कथन करते हैं यथा-क्रियाका अर्थ योग है वह जिसके पतनशील हो वह प्रतिपाती कहलाता है, और उसका प्रतिपक्ष अप्रतिपाती कहलाता है। जिसमें क्रिया अर्थात् योग सूक्ष्म होता है वह सूक्ष्मक्रिय कहा जाता है, और सूक्ष्मक्रिय होकर जो अप्रतिपाती होता है वह सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती ध्यान कहलाता है। (द्र. सं./टी/४८/२०४/८) यहाँ केवलज्ञानके द्वारा श्रुतज्ञान का अभाव हो जाता है, इसलिए यह अवितर्क है और अतिरकी संक्रान्तिका अभाव होनेसे अवीचार है, अथवा व्यंजन और योगकी संक्रान्तिका अभाव होनेसे अविचार है। प्रश्न-इस ध्यानमें इनकी संक्रान्तिका अभाव कैसे है। उत्तर-इनके अवलंबनके बिना ही युगपत त्रिकाल गोचर अशेष पदार्थों का ज्ञान होता है।
२. शुक्लध्यान निर्देश
१. शुक्ल ध्यान में श्वासोच्छ वासका निरोध हो जाता है प. प्र./म./२/१६२ णास-विणिग्गउ सासडा अंवरि जेत्थु विलाइ। तुट्ठइ मोह तड त्ति तहिं मणु अस्थवणहं जाइ १६२। -नाकसे निकला जो श्वास वह जिस निर्विकल्प समाधिमें मिल जावे. उसी जगह मोह शोध नष्ट हो जाता है, और मन स्थिर हो जाता है ।१६२१ भ, आ./वि./१८८८/१६६१/४ अकिरियं समुच्छिन्नप्राणापानप्रचार।
- इस ( समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति ) ध्यानमें सर्व श्वासोच्छ्वासका प्रचार बन्द हो जाता है।
२.पृथक्त्व वितमें प्रतिपातपना सम्मव है ध. १३१५.४,२६/पृ. पक्ति तदो परदो अस्थतरस्स णियमा संकम दि (७८/१०) उवसंतकसाओ...पुधत्तविदकवी चारज्माण... अंतोमुहूत्तकाल ज्झायइ (७८/१४) एवं एदम्हादो णिचुइगमणाणुवलं भादो (६/१) उबसंत । - अर्थ से अर्थान्तरपर नियमसे संक्रमित होता है ।...इस प्रकार उपशान्त कषाय जीव पृथक्त्व वितर्क वीचार ध्यानको अन्तर्मुहूर्त काल तक ध्याता है । इस प्रकार...इस ध्यान के फलसे मुक्तिको प्राप्ति नहीं होती।
८. समुच्छिन्न क्रिया निवृत्तिका स्वरूप भ. आ./मू./१८८८, २१२३ अवियस्कमवीचार अणियट्टिमकिरियं च सीलेसिं । ज्झाणं णिरुद्धयोग अपच्छिम उत्तम सुक्क १८८८। देहतियबंधपरिमोक्रवत्थं केवली अजोगी सो। उवयादि समच्छिपण- किरियं तु झाण अपडिवादी ।२१२३। -अन्तिम उत्तम शुक्लध्यान वितर्क रहित है, वीचार रहित है, अनिवृत्ति है, क्रिया रहित है, शैलेशी अवस्थाको प्राप्त है और योग रहित है। (ध. १३/३,४, २६/गा, ७७/८७) औदारिक शरीर, तैजस घ कार्मण शरीर इन तीन शरीरोंका बन्ध नाश करनेके लिए वे अयोगिकेवली भगवान समुच्छिन्न क्रिया निवृत्त नामक चतुर्थ शुक्लध्यानको ध्याते हैं (त. सा.//५३.५४)। स. सि./६४४/४५७/६ ततस्तदनन्तर समुच्छिन्नक्रियानिर्वत्तिध्यानमार
भते । समुच्छिन्नप्राणापानप्रचारसर्वकायवाङ्मनोयोगसर्व प्रदेशपरिस्पन्द क्रियाव्यापारत्वात समुच्छिन्न निवृत्तीत्युच्यते। - इसके बाद चौथे समुचि अन्न क्रिया निवृति ध्यानको प्रारम्भ करते हैं। इसमें प्राणापानके प्रचार रूप क्रियाका तथा सब प्रकारके काययोग वचनयोग और मनोयोगके द्वारा होनेवाली आत्म प्रदेश परिस्पन्द रूप क्रियाका उच्छेद हो जानेसे इसे समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति ध्यान कहते हैं (रा. वा./६/४४/१/६३६/११), (चा, सा./२०१/३)।
३. एकत्व वितर्क में प्रतिपातका विधि निषेध स.सि./६/४४/४५६/८ ध्यात्या पुनर्न निवर्तत इत्युक्तमेकत्ववितर्कम् । ___-वह ध्यान करके पुनः नहीं लौटता। इस प्रकार एकत्व वितर्क
ध्यान कहा। ध, १३/५,४,२६/८२/६ उवसंतकसायम्मि भवद्धारव एहि कसाए सु णिवदिवम्मि पडियादुवलं भादो।-उपशान्त कषाय जीवके भवक्षय और कालक्षयके निमित्तसे पुनः कषायों के प्राप्त हानेपर एकरव वितर्कअविचार ध्यानका प्रतिपात देखा जाता है। ।
१. चारों शुक्लध्यानों में अन्तर भ. आ./वि./१८८४-१८८५/१६८७/२० एकद्रव्यालम्बनत्वेन परिमितानेकसर्वपर्यायद्रव्यालम्बनात प्रथमध्यानात्समस्तवस्तुविषयाभ्यां तृतीय. चतुर्थाभ्यां च विलक्षणता द्वितीयस्यानया गाथया निवेदिता । क्षीणकषायग्रहणेन उपशान्तमोहस्वामिकत्वात् । सयोग्ययोगकेवलिस्वामिकाभ्यां च भेदः पूर्ववदेव । पूर्वव्यायणितवीचाराभावादवीचारत्वं ।- यह ध्यान ( एकस्व वितर्क ध्यान ) एक द्रव्य का ही आश्रय करता है इसलिए परिमित अनेक पर्यायों सहित अनेक द्रव्योंका
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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