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शुक्लध्यान
१. भद व लक्षण
द्विसंयोगी और त्रिसंयोगीको अपेक्षा यहाँ पृथक्त्व वितर्क वीचार ध्यानके ४२ भंग उत्पन्न करना चाहिए। इस प्रकार शुक्ललेश्या वाला उपशान्तकषाय जोब छह द्रव्य और नौ पदार्थ विषयक पृथक्त्व वितर्क वीचार ध्यानको अन्तर्मुहर्त कालतक ध्याता है। अर्थसे अर्थान्तरका संक्रम होनेपर भी ध्यानका विनाश नहीं होता, क्योंकि इससे चिन्तान्तरमें गमन नहीं होता। (चा. सा./२०४/१)। द्र, सं./टी./४८/२०३/६ पृथक्त्ववितर्कविचारं तावत्कथ्यते। द्रव्यगुणपर्यायाणां भिन्नत्वं पृथक्त्वं भण्यते. स्वशुद्धात्मानुभूतिलक्षणं भावश्रुतं तद्वाचकमन्तजल्पवचनं वा वितर्को भण्यते, अनीहितवृत्त्यार्थान्तरपरिणमनम् वचनाद्वचनान्तरपरिण मनम् मनोवचनकाययोगेषु योगायोगान्तरपरिणमनं वीचारो भण्यते । अयमत्रार्थ:- यद्यपि ध्याता पुरुष, स्वशुद्धात्मसंवेदनं विहाय बहिश्चिन्ता न करोति तथापि यावतांशेन स्वरूपे स्थिरत्वं नास्ति तावतांशेनानीहितवृत्त्या विकल्पाः स्फुरन्ति, तेन कारणेन पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान भण्यते। द्रव्य, गुण और पर्यायके भिन्नपनेको पृथक्त्व कहते हैं। निजशुद्धात्माका अनुभव रूप भाश्रुतको और निज.शुद्धात्माको कहने वाले अन्तर्जल्परूप बचनको 'वितर्क' कहते हैं। इच्छा बिना ही एक अर्थ से दूसरे अर्थ में, एक बचनसे दूसरे वचनमे, मन वचन और काय इन तीनों योगों मेसे किसी एक योगसे दूसरे योगमें जो परिणमन है, उसको वीचार कहते हैं। इसका यह अर्थ है-यद्यपि ध्यान करनेवाला पुरुष निज शुद्धात्म संवेदनको छोड़कर बाह्य पदार्थोंकी चिन्ता नहीं करता, तथापि जितने अंशोंसे स्वरूपमें स्थिरता नहीं है उतने अंशोसे अनिच्छित वृत्तिसे विकल्प उत्पन्न होते हैं, इस कारण इस ध्यानको पृथक्त्व वितर्क वीचार कहते हैं ।
.. एकत्व वितक अवीचारका स्वरूप भ. आ./मू./१८८३/१६८६ जेणेगमेव दव्वं जोगेणेगेण अण्णदरेण । खौण
कसायो ज्झायदि तेणेगत्तं तयं भणियं १८८३। - इस ध्यानके द्वारा एक ही योगका आश्रय लेकर एक हो द्रब्यका ध्याता चिन्तन करता है। इसलिए इसको एकत्व वितर्क ध्यान कहा गया है ।१८८३। स. सि./६/४४/४५६/४ सएव पुनः समूलतूल मोहनीय निर्दिधक्षन नन्तगुण विशुद्धियोगविशेषमाश्रित्य बहुतराणां ज्ञानावरणीय सहायीभूतानां प्रकृतीनां बन्ध निरुन्धन स्थिति ह्रासक्षयौ च कुर्वन् श्रुतज्ञानोपयोगी निवृत्तार्थव्यजनयोगसंक्रान्ति अविचलितमना: क्षीणक्यायो वैडूर्यमणिरिक निरुपलेपो ध्यात्वा पुनर्न निवर्तत इत्युक्तमेकत्ववितर्कम् । - पुनः जो समूल मोहनीय कर्म का दाह करना चाहता है, जो अनन्तगुणी विशुद्धि विशेषको प्राप्त होकर बहुत प्रकारकी ज्ञानावरणीकी सहायभूत प्रकृतियों के बन्धको रोक रहा है, जो कर्मों की स्थितिको न्यून और नान कर रहा है, जो श्रुतज्ञानके उपयोगमे युक्त है. जो अर्थ, व्यंजन और योगकी संक्रान्तिसे रहित है। निश्चलमन बाला है, क्षीण कषाय है और वैडूर्यमणिके समान निरुपलेप है,...इस प्रकार एकत्व वितर्क ध्यान कहा गया है । (रा. वा./६/४४/१/६३४/३१) । ध. १३/५,४,२६/गा.६१-६३/७६ जेणेगमेव दव्वं जोगेणेक्केण अण्णदरएण । रवीणकसाओ ज्झायइ तेणेयतं तम् भणि ६१। जम्हा सुदं विदक्क जम्हा पुधगय अत्थ कुसलो य। ज्झायदि झाणं एवं सविदवक तेण तज्माण ६२। अत्थाण बंजणाण य जोगाण य संकमोह विचारो। तस्स अभावेश तगं झाण मवीचारमिदि वृत्त ।६३। व. १३/५,४,२६/८०/१ णवपश्यत्येसु दव्य-गुण-पज्जयथं दव्य-गुण-पज्जय
भेदेण ज्झाएदि, अण्णदरजोगेण अण्गदराभिधाणेण य तत्थ एगम्हि दवे गुणे पज्जाए बा मेरुमहियरोव्व णिच्चलभावेण अवट्ठियचित्तस्स असंखेज्जगुणसेडीए कम्मरबंधे मालयंतस्स अणं तगुणहीणाए सेडीए कम्माणुभागं सोसयंतस्स कम्माण छिदोयो एगजोगएगाभिहाण झाणेण घादयंतस्स अंतोमुत्तमेत कालो गच्छत्ति
तदो सेसरवीणक् सायमेतद्विदीयो मोत्तूण उवरिमसद्विदियो घेत्तण उदयादिगुणसे डिसरूवेण रचिय पुणो टिदिखंडएण विणा अघटिदिगलणेण असंखेज्जगुणसेडीए कम्मक्खंधे घाईतो गच्छादि जाव रवीण कसायचरिमसमओ त्ति। तत्थ खीणकसायचरिमसमए णाणावरणीय-दसणावरणीय-अंतराश्याणि विणादि । एदेसु णि? सु केवलणाणी केवल दंसणी अणं तवीरियो दाण-लाह-भोगुवभोगेसु विग्धज्जियो होदि ति घेत्त । -१. यतः क्षीणकषाय जीव एक ही द्रव्यका किसी एक योगके द्वारा ध्यान करता है, इसलिए उस ध्यानको एकत्व कहा है।६११ यतः वितर्कका अर्थ श्रुत है और इसलिए पूर्वगत अर्थ में कुशल साधु इस ध्यानको ध्याता है, इसलिए इस ध्यानको सवितर्क कहा है।६। अर्थ, व्यंजन और योगोके संक्रमका नाम वीचार है। यतः उस विचारके अभावसे यह ध्यान अवीचार कहा है ।६३॥ (त. सा./७/४८-५०); ( क. पा. १/१, १७/६ ३१२/३४४/१५); (ज्ञा./४२/१३-१४)1 २. जो जीव नौ पदार्थों में से किसी एक पदार्थका द्रव्य, गुण और पर्यायके भेदसे ध्यान करता है। इस प्रकार किसी एक योग और एक शब्दके आलम्बनसे वहाँ एक द्रव्य, गुण या पर्यायमें मेरु पर्वतके समान निश्चल भावसे अबस्थित चित्तवाले, असंख्यात गुणश्रेणि क्रमसे कमस्कन्धोंको गलानेवाले, अनन्त गुणहीन श्रेणिक्रमसे कर्मों के अनुरागको शोषित करनेवाले और कमों की स्थितियोको एक योग तथा एक शब्दके आलम्बनसे प्राप्त हुए ध्यानके बलसे घात करनेवाले उस जीवका अन्तमुहूर्त काल रह जाता है। तदनन्तर शेष रहे क्षीणकषायके कालका प्रमाण स्थितियों को छोड़कर उपरिम सन स्थितियोंकी उदयादि श्रेणि रूपसे रचना करके पुनः स्थिति काण्डक घातके बिना अध.स्थिति गलना आदि ही असंख्यात गुणश्रेणि कमसे कर्म स्कन्धोंका घात करता हुआ क्षीण कषायके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक जाता है। वहाँ क्षीण कषायके अन्तिम समयमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तरायका घात करके केवलज्ञानी, केवलदर्शनी, अनन्तवीर्यधारी तथा दान-लाभ-भोग व उपभोगके विध्नसे रहित होता है। (चा. सा /२०६/३)। द. सं./टी./४८/२०४/४ निजशुद्धात्मद्रव्ये वा निर्विकारात्मसुखसंवित्ति. पर्याये वा निरुपाधिस्वसंवेदनगुणे वा यत्रै कस्मिन् प्रवृत्तं तत्रैव वितर्क संज्ञेन स्वसंवित्तिलक्षणभावश्नुतवलेन रिथरीभूयावी चार गुणद्रव्यपर्याय परावर्तनं न करोति यत्तदेकत्ववितर्कावीचारसंज्ञे क्षीणकषायगुणस्थानसंभवं द्वितीयं शुक्लध्यानं भण्यते । तेनैव केवलज्ञानोत्पत्ति' इति । निज शुद्धात्म द्रव्यमें या विकार रहित आत्मसुख अनुभवरूप पर्यायमें, या उपाधि रहित स्व संवेदन गुणमें. इन तीनों में से जिस एक द्रव्य गुण या पर्यायमें प्रवृत्त हो गया और उसी में बितर्क नामक निजात्मानुभवरूप भाव श्रुतके बलसे स्थिर होकर अवीचार अर्थात द्रव्य गुण पर्यायमें परावर्तन नहीं करता वह एकत्व वितर्क नामक गुणस्थानमें होनेवाला दूसरा शुक्लध्यान कहलाता है जो कि केवल ज्ञानकी उत्पत्तिका कारण है।
७. सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपातीका स्वरूप भ, आ./म्/१८८६-१८८७ अवितक्कमवीचार सुहुमकिरियबंधणं तदियसुक्कं । सुहमम्मि कायजोगे भणिदं तं सव्वभावगदं १८८६। सुहमम्मि कायजोगे वट्टतो केवली तदियसुक्कम् । झायदि णिरु भिर्दुजे सुहमत्तणकाय जोगपि ११८८७) -वितर्क रहित, अवीचार, सूक्ष्म क्रिया करनेवाले आत्माके होता है। यह ध्यान सूक्ष्म काय योगसे है ।१८८६। प्रवृत्त होता है। त्रिकाल विषयक पदार्थोंको युगपद प्रगट करनेवाला इस सूक्ष्म काययोगमें रहनेवाले केवली इस तृतीय शुक्लध्यान के धारक हैं। उस समय सूक्ष्म काययोगका चे निरोध करते हैं ११८८७४ (भ. आ./मू./२११४), (ध. १३/५, ४. २६/गा. ७२-७३/८३), (त. सा.//५१-५२), (ज्ञा/४२/५१) ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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