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शुद्धि
शुद्धि
करनेवाले और सुननेवालोंको भी द्रव्यशुद्धि, क्षेत्रशुद्धि, कालशुद्धि
हिसे व्यारण्यांन करने में या पढ़ने में प्रवृत्ति करना चाहिए। (विशेष-दे. स्वाध्याय/२); ( अन, ध./६/४/८४७)। ४. लिंग व व्रतकी १० शुद्धियाँ म. आ./७६ लिंगं बदं च मुद्धी बसदि विहारं च भिक्खणाणं च ।
उज्मणसुद्धी य पुणो वक्कं च तवं तधा झाणं १७६६। -लिंगशुद्धि, बतशद्धि, वसतिशुद्धि, विहारशुद्धि, भिक्षाशुद्धि, ज्ञानशुद्धि, उज्झणशुद्धि, वाक्यशुद्धि, तपशुद्धि और ध्यानशुद्धि। ५ लौकिक आठ शुचियों दे. शुचि । काल, अग्नि, भस्म, मृतिका, गोबर, जल, ज्ञान और निर्विचिकित्साके भेदसे आठ प्रकारकी लौकिक शुचि है।
३. मन, वचन व काय शुद्धियोंका लक्षण भ, आ./वि./१६७/३८०/१३ दृष्टफलानपेक्षिता विनयशुद्धिः। तस्या सत्यामुपकरणादिलोभो निरस्तो भवति। -कीति आदर इत्यादि लौकिक फलों की इच्छा छोड़कर साधर्मिक जन, गुरुजन इत्यादिकोंका विनय करना विनय शुद्धि है, इसके होनेसे उपकरण आदि के लोभका अभाव होता है। नि. सा./म./११२ मदमाणमायलोहविवज्जिय भावो दु भावमुद्धि ति। परिकहियं भवाणं लोयालोयम्पदरिसीहिं ।-(आलोचना प्रकरणमे) मद, मान, माया ओर लोभ रहित भाव बह भाव शुद्धि है। ऐसा भव्योंको लोकालोकके द्रष्टाओंने कहा है ।११२। (मू. आ./२७६) नोट- वचनशुद्धि-दे. समिति/१। रा. वा./8/६/१६/५६७/४ तत्र भावशुद्धि कर्मक्षयोपशमज निता मोक्षमार्गरुच्याहितप्रसादा रागाद्य पप्लवरहिता । तस्यां सत्यामाचारः प्रकाशते परिशुद्रभित्तिगतचित्रकर्मवत। कायशुद्धिनिरावरणाभरणा निरस्तसस्कारा यथाजातमलधारिणी निराकृताङ्गविकारा सर्वत्र प्रयतवृत्तिः प्रशमसुखं मूतिमिव प्रदर्शयन्तीति । तस्यां सत्यां । न स्त्रतोऽन्यस्य भयमुपजायते नाप्यन्यतस्तस्य । विनयशुद्धिः अहंदादिषु परमगुरुषु यथाहं पूजा प्रवणा, ज्ञानादिषु च यथाविधि भक्तियुक्ता गुरोः सर्वत्रानुकूल वृत्तिः, प्रश्नस्वाध्यायवाचनाकथाविज्ञप्त्यादिषु प्रतिपत्तिकुशला, देशकालभावावबोधनिपुणा, आचार्यानुमतचारिणी। तन्मूलाः सर्वसपदः, सैषा भूषा पुरुषस्य, सैव नौः संसारसमुद्रतरणे। -भावशुद्धि-कर्मके क्षयोपशमसे जन्य, मोक्षमार्गको रुचिसे जिसमे विशुद्धि प्राप्त हुई है और जो रागादि उपद्रवोंसे रहित है वह भावशुद्धि है । इसके होनेसे आचार उसी तरह चमक उठता है जैसे कि स्वच्छ दिवालपर आलेखित चिन। कायशुद्धि-यह समस्त आवरण और आभरणोंसे रहित, शरीर संस्कारसे शून्य, यथाजात मलको धारण करनेवाली, अंगविकारसे रहित, और सर्वत्र यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति रूप है। यह मूर्तिमान प्रशमसुखकी तरह है। इसके होनेपर न तो दूसरोंसे अपनेको भय होता है और न अपनेसे दूसरो को। विनयशुद्धि-अर्हन्त आदि परम गुरुओंमें यथायोग्य पूजा-भक्ति आदि तथा ज्ञान आदिमें यथाविधि भक्तिसे युक्त. गुरुओंमे सर्वत्र अनुकूल वृत्ति रखनेवाली, प्रश्न स्वाध्याय, वाचना, कथा और विज्ञप्ति आदिमें कुशल, देश काल और भावके स्वरूपको समझने में तत्पर तथा आचार्यके मतका आचरण करनेवाली विनयशुद्धि है। समस्त सम्पदाएँ विनयमूलक है। यह पुरुषका भूषण है। यह संसार समुद्रसे पार उतारनेके लिए नौकाके समान है। ध.६/४,१.५४/२५४/१० अवगयराग-दोसाह कारट्ट-रुद्दज्माणस्स पंचमहब्वयकलिदस्स तिगुत्तिगुत्तस्स णाण-दसण-चरणादिचारण डढदस्स भिक्खुस्स भावसुद्धी हादि। -राग, द्वेष, अहंकार, आर्त व रौद्र ध्यानसे रहित, पाँच महावतोंसे युक्त, तीन गुप्तियों से रक्षित, तथा ज्ञान दर्शन व चारित्र आदि आचारसे वृद्धिको प्राप्त भिक्षुके
भावशुद्धि होती है। वसु. श्रा./२२६-२३० चहऊण अट्टरुद्दे मण सुमी होई कायव्वा ।२२६) सव्वत्थसपुडंगस्स होइ तह काय सुद्धी वि ।२३०। - आर्त, रौद्र ध्यान छोड़कर मनःशुद्धि करना चाहिए ।२२६। सर्व ओरसे संपुटित अर्थात विनीत अंग रखनेवाले दातारके कायशुद्धि होती है।
४. द्रव्य. क्षेत्र व काल शुद्धिोंके लक्षण मू आ /२७६ रुहिरादि पूयमंसं दम्वे खेत्ते सदहत्यपरिमाणं । -लोही, मल, मूत्र, बीर्य, हाड, पीब मासरूप द्रव्यका शरीरसे सम्बन्ध करना। उस जगहसे चारों दिशाओं मे सौ सौ हाथ प्रमाण स्थान छोड़ना क्रमसे द्रव्य व क्षेत्रशुद्धि है। ध.६/४,१,५४/गा, १०३-१०७/२५६ प्रमितिररत्निशतं स्यादुच्चारविमोक्षण क्षितेरारात । तनुस लिलमोक्षणेऽपि च पञ्चाशदर स्निरेवातः। । १०३ । मानुषशरीरलेशावयवस्याप्यत्र दण्डपञ्चाशत् । संशोध्या तिरश्चां तदर्द्धमात्रैव भूमिः स्यात १०४॥ क्षेत्रं संशोध्य पुनः स्वहस्तपादौ विशोध्य शुद्धमनाः। प्राशुकदेशावस्थो गृह्णीया वाचना पश्चात् ।१०७१ = मल छोड़नेकी भूमिसे सौ अरनि प्रमाण दूर, तनुसलिल अर्थात मूत्र छोड़नेमें भी इस भूमिसे पचास अररिन दूर, मनुष्य शरीरके लेशमात्र अवयवके स्थानसे पचास धनुष तथा तियंच के शरीर सम्बन्धी अवयवके स्थानमे उससे आधी मात्र अर्थात् पच्चीस धनुष प्रमाण भूमिको शुद्ध करना चाहिए ।१०३-१०४। क्षेत्रकी शुद्धि करनेके पश्चात अपने हाथ और पैरोंको शुद्ध करके तदनन्तर विशुद्ध मन युक्त होता हुआ प्रासुक देशमें स्थित होकर बाचनाको ग्रहण करे ।१०७१ दे. आहार/II/२/१ उद्गम, उत्पादन, अशन, संयोजना, प्रमाण, अंगार, धूम, कारण-इन दापोंसे रहित भोजन ग्रहण करना वह आठ प्रकार
को पिंड (द्रव्य) शुद्धि है। ध.६/४,१,५४/२५३-२५४/३ तत्र ज्वर-कुक्षि-शिरोरोग-दुःस्वप्न-रुधिरविण-मूत्र-लेपातीसार-पूयसाबादीनां शरीरे अभावो द्रव्य शुद्धिः । व्याख्यातृव्यावस्थितप्रदेशात चतसृष्व पि दिक्ष्वष्टाविशतिसहस्रायातासु-विमूत्रास्थि-केश नख-त्वगाद्यभावः षष्ठातीतवाचनातः आरात्पञ्चेन्द्रियशरीरास्थि-वड मांसासृसंबन्धाभावश्च क्षेत्रशुद्धिः । विद्यु दिन्द्रधनुग्रहोपरागाकालवृष्टयभ्रगर्जन - जीमूतवातच्छाद - दिग्दाह - धूमिकापात - संन्यास-महोपवास-नन्दीश्वरजिनमहिमाद्यभावः कालशुद्धि । अत्र काल शुद्धिकारण विधानमभिधास्ये। तं जहापच्छियरत्तिसज्झायं खमाविय बहि णिक्कलिय पासुवे भूमिपदेसे काओसग्गेण पुवाहिमुहो हाइदूण णवगाहापरियट्टणकालेण पुवदिस सोहिय पुणो पदाहिणेण पल्लटिय एदेणेव कालेण जम-वरुण-सोमदिसासु सोहिदामु छत्तीसगाहुच्चारणकालेण (३६) अट्ठसदुस्सासकालेण वा कालसुद्धी समप्पदि (१०८) अबरण्हे वि एवं चेव कालसुद्धी कायव्वा । णवरि एक्केक्काए दिसाए सत्त-सत्त गाहापरियट्टणेण परिच्छिण्णकाला त्ति णायव्वा । एत्थ सव्वगाहापमाणमट्ठावीस (२८) चउरासीदि उस्सासा (८४) पुणो अणस्थमिदे दिवायरे खेत्त सुद्धि कादूण अस्थ मिदे कालसुद्धिं पुव्वं ब कुज्जा। णवरि एत्थ कालो वीसगाहुच्चारणमेनो (२०) सट्ठिउस्सासमेत्तो वा (६०) = १. द्रव्यशुद्धि-ज्वर कुक्षिरोग, शिरोरोग, कुत्सित स्वप्न, रुधिर, बिष्टा, मूत्र, लेप, अतिसार और पीबका बहना इत्यादिकोका शरीरमें न रहना द्रव्यशुद्धि कही जाती है। २. क्षेत्रशुद्धि-व्याख्यातासे अधिष्ठित प्रदेशसे चारों ही दिशाओमें अट्ठाईस हजार (धनुष ) प्रमाण क्षेत्रमें विष्ठा, मूत्र, हड्डी, केश, नख और केश तथा चमड़े आदिके अभावको; तथा छह अतीत वाचनाओ से (1) समीपमैं (या दूरी तक) पचेन्द्रिय जीवके शरीर सम्बन्धी गीली हड्डी, चमड़ा, मांस और रुधिरके सम्बन्धके अभावको क्षेत्रशुद्धि कहते है (मू. आ./२७६ )। ३. कालशुद्धिविजली, इन्द्रधनुष, सूर्य चन्द्र का ग्रहण, अकाल वृष्टि, मेघगर्जन,
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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