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१. भेद व लक्षण
शुक्ल ध्यान
न लिप्यते पुण्यपापेन ।४४। शुद्धारमा तनुमात्र ज्ञानी चेतन- गुणोऽहम एकोऽहम् । इति ध्याने योगी प्राप्नोति परमात्मकं स्थानम १४५ अभ्यन्तरं च कृत्वा बहिरर्थसुखानि कुरु शुन्यतनुम् । निश्चिन्त स्तथा हंसः पुरुषः पुनः केवली भवति । ४७ बहुत कहनेसे क्या ! परमार्थ से सालम्बन ध्यान (धर्म ध्यान) को जानकर उसे छोड़ना चाहिए तथा तत्पश्चात् निरालम्बन ध्यानका अभ्यास करना चाहिए 1३७। प्रथम द्वितीय आदि श्रेणियों को पार करता हुआ वह योगी चरम स्थानमें पहुँच कर स्थूलतः शून्य हो जाता है।३८। क्योंकि रागादिसे मुक्त, मोह रहित,स्वभाव परिणत ज्ञान ही जिनशासनमें शून्य कहा जाता है।४१॥ इन्द्रिय विषयोंसे अतीत, मन्त्र, तन्त्र तथा धारणा आदि रूप ध्येयोंसे रहित जो आकाश न होते हुए भी आकाशवत निर्मल है, वह ज्ञान मात्र शून्य कहलाता है।४२। मैं किसीका नहीं. पुत्रादि कोई भी मेरे नहीं हैं, मैं अकेला हूँ शून्य ध्यानके ज्ञानमें योगी इस प्रकारके परम स्थानको प्राप्त करता है ।४३। मन, वचन,, काय, मत्सर, ममत्व, शरीर, धन-धान्य आदिसे मैं शून्य हूँ इस प्रकारके शून्य ध्यानसे युक्त योगी पुण्य पापसे लिप्त नहीं होता।४४। 'मैं शुद्वात्मा हूँ, शरीर मात्र हूँ, ज्ञानी हूँ, चेतन गुण स्वरूप हूँ, एक हूँ, इस प्रकारके ध्यानसे योगी परमात्म स्थानको प्राप्त करता है।४५॥ अभ्यन्तरको निश्चित करके तथा बाह्य पदार्थों सम्बन्धी सुखों व शरीरको शून्य करके हंस रूप पुरुष अर्थात् अत्यन्त निर्मल आत्मा केवली हो जाता है।४।। आचारसार/७७-८३ जायन्ते विरसा रसा विघटते गोष्ठीकथा कौतुक
शीर्यन्ते विषयास्तथा विरमणात प्रीतिः शरीरेऽपि च । जोषं वागपि धारयत्वविरतानन्दात्मनः स्वारमनश्चिन्तायामपि यातुमिच्छति मनोदोषः समं पञ्चताम् ७७। यत्र न ध्यानं ध्येय ध्यातारौ नैव चिन्तनं किमपि । न च धारणा विकल्पस्तं शून्यं सुष्ठ भाक्ये १७८) शून्यध्यानप्रविष्टो योगः स्वसद्भावसंपन्नः। परमानन्द स्थितो भृतावस्थः स्फुटं भवति ।७। तस्त्रिकमयो ह्यारमा अवशेषालम्बनैः परिमुक्तः । उक्तः स तेन शून्यो शानिभिर्न सर्वथा शून्यः ।८० यावद्विकल्पः कश्चिदपि जायते योगिनो ध्यानयुक्तस्य । तावन्न शून्यं ध्यान चिन्ता वा भावनाथवाश --सब रस विरस हो जाते हैं, कथा गोष्ठी व कौतुक विघट जाते हैं, इन्द्रियों के विषय मुरझा जाते हैं, तथा शरीरमें प्रीति भी समाप्त हो जाती है व वचन भो मौन धारण कर लेता है। आत्माकी आनन्दाभूति काल में मन के दोषों सहित स्वारम विषयक चिन्ता भी शान्त होने लगती है। जहाँ न ध्यान है, न ध्येय है, न 'ध्याता है, न कुछ चिन्तबन है, न धारणाके विकल्प हैं, ऐसे शून्यको भली प्रकार भाना चाहिए ७८॥ शून्य ध्यानमें प्रविष्ट योगी स्व स्वभावसे सम्पन्न, परमानन्दमें स्थित तथा प्रगट भरितावस्थावत् होता है ।७१। ज्ञानदर्शन चारित्र इन तीनों मयी आत्मा निश्चयसे अवशेष समस्त अवलम्बनोंसे मुक्त हो जाता है। इसलिए वह शून्य कहलाता है, सर्वथा शून्य नहीं 100 ध्यान युक्त योगीको जंब तक कुछ भी विकल्प उत्पन्न होते रहते हैं, तब तक वह शून्य ध्यान नहीं, वह या तो चिन्ता है या भावना।
५. पृथक्त्व वितके वीचारका स्वरूप भ. आ./मू./१८८०, १८८२ दवाई अणेयाई ताहि वि जोगेहि जेणज्झायं ति। उबसंतमोहणिज्जा तेण पृधत्तंत्ति तं भणिया ।१८८०। अत्थाण बंजणाण य जोगाण य संकमो हु वीचारो। तस्स य भावेण तयं सुत्ते उत्तं सवीचार १५२ = इस पृथक्त्व वितर्क वीचार ध्यानमें अनेक द्रव्य विषय होते हैं और इन विषयोंका विचार करते समय उपशान्त मोह मुनि इन मन वचन काय योगोंका परिवर्तन करता है ।१८८०। इस ध्यानमें अर्थ के वाचक शब्द संक्रमण तथा योगोंका संक्रमण होता है। ऐसे वीचारों (संक्रमणोंका) का सद्भाव होनेसे इसे सवीचार कहते हैं। अनेक द्रव्योंका ज्ञान करानेवाला जो शब्द श्रुत वाक्य उससे यह ध्यान उत्पन्न होता है, इसलिए इस ध्यानका पृथक्त्वबितर्क सबीचार ऐसा नाम है ।१८८२।
त. स./8-४१-४४ एकाश्रये सवितर्क वीचारे पूर्व ।४१। वितर्कः श्रुतम् ।४३। वीचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः ।४४१ म पहलेके दो ध्यान एक आश्रयवाले, सवितर्क, और सवीचार होते हैं ।४१॥ वितर्कका अर्थ श्रुत है।४३। अर्थ, व्यंजन और योगकी संक्रान्ति वीचार है।४४। भावार्थ-पृथक्त्व अर्थात् भेद रूपसे वितर्क श्रुतका वीचार अर्थात् संक्रान्ति जिस ध्यानमें होती है वह पृथक्त्व वितर्क वीचार नामका ध्यान है । (ध. १३/५,४,२६/७७/११); (क. पा.१/१.१७/६३१२/३४४/६) (ज्ञा./४२/१३,२०-२२)। स, सि./१/४४/४५६/१ तत्र द्रव्यपरमाणु' भावपरमाणु वा ध्यायन्नाहितवितर्क सामर्थ्य : अर्थव्यजने कायव चसी च पृथक्त्वेन संक्रामता मनसापर्याप्तबालोत्साहवदव्यवस्थितेनानिशितेनापि शस्त्रेण चिरातरु'छिन्दन्निव मोहप्रकृतीरुपशमयन्क्षपयंश्च पृथक्त्ववितर्कवीचारध्यानभाग्भवति । [ पुनर्वीर्यविशेषहानेर्योगाद्योगान्तरं व्यब्जनाद्वयञ्जनान्तरमदिर्थान्तरमाश्रयन् ध्यानविधूतमोहरजाः ध्यानयोगान्निवर्तते इति । पृथक्त्व वितर्कवीचारम् [ रा. वा.]। जिस प्रकार अपर्याप्त उत्साहसे बालक अव्यवस्थित और मौथरे शस्त्रके द्वारा भी चिरकाल में वृक्षको छेदता है उसी प्रकार चित्तकी सामर्थ्य को प्राप्त कर जो द्रव्यपरमाणु और भाव परमाणुका ध्यान कर रहा है वह अर्थ और व्यंजन तथा काय और वचनमें पृथक्रवरूपसे संक्रमण करनेवाले मनके द्वारा मोहनीय कर्म की प्रकृतियोंका उपशम और क्षय करता हुआ पृथक्त्व वितर्क वीचार ध्यानको धारण करनेवाला होता है। फिर शक्तिको कमीसे योगसे योगान्तर, व्यंजनसे व्यंजनान्तर और अर्थ से अर्थान्तरको प्राप्त कर मोहरजका विधूननकर ध्यानसे निवृत्त होता है यह पृथक्त्ववितर्क वीचार ध्यान है। (रा, वा./६/४४/१/६३४/२५); (म. पु./२१/१७०-१७३ ) । घ.१३/५.६,२६/गा. ५८-६०/७८ दवाइमणेगाई तीहि वि जोगेहि जेण
झायं ति। उबसंतमोहणिज्जा तेण पुधत्तं तितं भणितं ।५८ जम्हा सुदं बिदक्कं जम्हा पुव्यगयअत्थकुसलो य। ज्झायदि ज्झाणं एदंसविदयकं तेण तं ज्झाणं ।।६। अस्थाण वंजणाण य जोगाण य संक
मो हु वीचारो। तस्स य भावेण तगं सुत्ते उत्तं सवीचार ।। ध,१३/५,४,२६/७८/८ एकदव्यं गुणपज्जायं वा पढमसमए बहुणयगहणणिलीणं सुदरविकिरणुज्जोयवलेण ज्झाएदि। एवं तं चेव अंतोमुहत्तमेत्तकालं ज्झाएदि । तदो परदो अत्यंतरस्स णियमा संकमदि। अधवा तम्हि चेव अत्थे गुणस्स पज्जयस्स वा संकमदि। पुबिक्लजोगहजो गोर्गतरपि,सिया संकमदि । एगमत्थमत्यंतरं गुणगुणं तरं पज्जायपज्जायतरं च हेट्ठोबरि टुक्यि पुणो तिण्णि जोगे एगपंतीए ठविय दुसजोग-तिसजोगेहि एत्थ पुधत्तविदक्कवीचारज्झाणभंगा मादालीस 1४२। उपाएदया। एवमंतोमुहुत्तकालमुवसंतकसाओ सुक्कलेस्साओ पुधत्त विदकावीचारज्माणं छदब्ब-णवपयस्थ बिसयमंतोमुहत्तकाल ज्झायइ । अत्थदो अत्यंतरसंकमे संति वि ण ज्माण विणासो, चित्तसरगमणाभाबादो। -१. यतः उपशान्त मोह जीव अनेक द्रव्योंका तीनों ही योगों के आलम्बनसे ध्यान करते हैं इसलिए उसे पृथक्त्व ऐसा कहा है।१८यतः वितर्कका अर्थ श्रुत है और यतः पूर्वगत अर्थ में कुशल साधु ही इस ध्यानको ध्याते हैं, इसलिए इस ध्यानको सवितर्क कहा है ।५६। अर्थ, व्यंजन और योगोंका संक्रम वीचार है। जो ऐसे संक्रमसे युक्त होता है उसे सूत्र में सविचार कहा है 1६०। (त. सा./७/४५-४७) । २. इसका भावार्थ कहते हैं...एक द्रव्य या गुण-पर्यायको श्रुत रूपी रविकिरणके प्रकाशके बल से ध्याता है । इस प्रकार उसी पदार्थको अन्तर्मुहूर्त काल तक ध्याता है। इसके बाद अर्थान्तरपर नियमसे संक्रमित होता है। अथवा उसी अर्थ के गुण या पर्याय पर संक्रमित होता है। और पूर्व योगसे स्यात् योगान्तरपर संक्रमित होता है इस तरह एक अर्थ-अर्थान्तर, गुण-गुणान्तर और पर्याय-पर्यायान्तरको नीचे ऊपर स्थापित करके फिर तोन योगोंको एक पंक्ति में स्थापित करके
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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