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शुक्लध्यान
शील कथा
दोनोंसे ही उत्पन्न होनेवाले कार्यकी उनसे एकके द्वारा उत्पत्तिका विरोध है। प्रश्न-इनकी सम्भावना यहाँ भले ही हो, पर ज्ञान विनयकी सम्भावना नहीं हो सकती। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि छह द्रव्य, नौ पदार्थों के समूह और त्रिभुवनको विषय करनेवाले एवं मार-मार उपयोग विषयको प्राप्त होनेवाले ज्ञान विनयके बिना शीलवतोंके कारण भूत सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति नहीं बन सकती। शील व्रत विषयक निरतिचारतामें चारित्र विनयका भी अभाव नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि यथाशक्तितप, आवश्यकापरिहीनता और प्रवचनवत्सलता लक्षण चारित्र विनयके बिना शील व्रत विषयक निरतिचारताकी उपपति ही नहीं बनती। इस कारण यह तीर्थकर नामकर्म के बन्धका तीसरा कारण है। *किसी एक ही भावनासे तीर्थकरव सम्भव
-दे० भावना/२। * ब्रह्मचर्य विषयक शील-दे० ब्रह्मचरी । शील कथा-कवि भारामल (ई. १७५६) रचित हिन्दी भाषा कथा। शील कल्याणक व्रत-दे. कल्याणक व्रत । शील पाहुड़-आ. कुन्दकुन्द (ई. १२७-१७६) कृत ज्ञान व चारित्र
का समन्वयात्मक, ४० (प्रा.) गाथा निबद्ध ग्रन्थ है। इसपर केवल पं. जयचन्द्र छाबड़ा (ई. १७६७) कृत भाषा वचनिका उपलब्ध है। शील व्रत-प्रतिवर्ष वैशाख शु.६ के दिन (अभिनन्दन नाथ भगवान्का मोक्ष कल्याणक दिवस ) उपवास। इस प्रकार ५ वर्ष पर्यन्त करे । 'ओं ह्रीं अभिनन्दनजिनाय नमः' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप करे । (वतविधान सं./पृ.८६)। शीलवतेष्वनतिचार भावना-दे. शील। शील सप्तमी व्रत-सात वर्ष पर्यन्त प्रतिवर्ष भाद्रपद शु. ७ को
उपवास करे। तथा नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप करे। (वत विधान सं./पृ. १०४) (कथाकोष)।
भेद व लक्षण शुक्लध्यान सामान्यका लक्षण शुक्लध्यानमें शुक्ल शब्दकी सार्थकता
-- दे. शुक्लध्यान/१/१। शुक्लध्यानके अपरनाम -दे. मोक्षमार्ग/२/५ । शुक्लध्यानके भेद बाह्य व आध्यात्मिक शुक्लध्यानका लक्षण शून्य ध्यानका लक्षण पृथक्त्व वितर्क विचारका स्वरूप एकत्व वितर्क अविचारका स्वरूप सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपातीका स्वरूप समुच्छिन्न क्रिया निवृत्तिका स्वरूप
शुक्लध्यान निर्देश ध्यानयोग्य द्रव्य क्षेत्र आसनादि -दे. कृतिकर्म/३ । धर्म व शुक्लध्यान में कथंचित् भेदाभेद
--दे. धर्मध्यान/३ । शुक्लध्यानमें कथंचित् विकल्पता व निर्विकल्पता व क्रमाक्रमवर्तिपना
-दे. विकल्प। शुक्लध्यान व रूपातीत ध्यानकी एकार्थता
-दे, पद्धति । शुक्ल ध्यान व निर्विकल्प समापिकी एकार्थता
-दे. पद्धति। शुक्लध्यान व शुद्धात्मानुभव की एकार्थता-दे. पद्धति । शुद्धात्मानुभव
-वे. अनुभव। शुक्लध्यानके बाह्य चिह्न --दे. ध्याता/५ । शुम्लध्यानमें वासोच्छ वासका निरोध हो जाता है। पृथक्त्ववितर्कमें प्रतिपातीपना सम्भव है। एकत्व वितर्कमें प्रतिपातका विधि निषेध । चारों शुक्लध्यानोंमें अन्तर। शुक्लध्यानमें सम्भव भाव व लेश्या शुक्लध्यानमें संहनन सम्बन्धी नियम -दे. संहनन। । पंचमकालमें शुक्लध्यान सम्भव नहीं-दे,धर्मध्यान/१।।
शुक्लध्यान का स्वामित्व व फल
शीलांक-नांग वृत्ति' के रचयिता एक श्वेताम्बराचार्य । समय
बि. श. (ई.स.पूर्वार्ध)। (जै./२/३६५) । शुभा--पूर्व विदेहस्थ रमणिया क्षेत्रकी मुख्य नगरी-दे. लोक/७ ॥ शुक्ति-भरत क्षेत्रमें शुक्तिमती नदीपर स्थित एक नगर-दे.
मनुष्य/४। शुक्तिमती-भरतक्षेत्र आर्य खण्डकी एक नदी-दे. मनुष्य/४ । शुक्र-१औदारिक शरीरमें शुक्रधातुकानिर्देश-दे. औदारिक/११७ २. एक प्रह-दे. ग्रह; ३. शुक्र ग्रहका लोकमें अवस्थान-दे. ज्योतिष,लोक; ४ कल्पवासी बोका एक भेद--दे. स्वर्ग/३; ५. कल्प स्वर्गोंका नवमां कल्प-दे. स्वर्ग/२५२, ६. शुक्र स्वर्गका प्रथम पटल व इन्द्रक-दे. स्वर्ग/५/३। । शुक्लध्यान-ध्यान करते हए साधुको बुद्धिपूर्वक राग समाप्त हो जानेपर जो निर्विकल्प समाधि प्रगट होती है, उसे शुक्लध्यान या रूपातीत ध्यान कहते हैं। इसकी भी उत्तरोत्तर वृद्धिगत चार श्रेणियाँ हैं। पहली श्रेणी में अवुद्धिपूर्वक ही ज्ञानमें ज्ञेय पदार्थोंकी तथा योग प्रवृत्तियोंकी संक्रान्ति होती रहती है, अगली श्रेणियों में यह भी नहीं रहती। रत्न दीपककी ज्योतिकी भाँति निष्कंप होकर ठहरता है। श्वास निरोध इसमें करना नहीं पड़ता अपितु स्वयं हो जाता है। यह ध्यान साक्षात मोक्षका कारण है।
शुक्लध्यानके योग्य जघन्य उत्कृष्ट ज्ञान
-दे. ध्याता/१। पृथक्त्व वितर्क विचारका स्वामित्व एकत्व वितर्क विचारका स्वामित्व उपशान्त कषायमें एकत्व वितर्क कैसे सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती व सूक्ष्म त्रिया निवृत्तिका स्वामित्व। स्त्रीको शुक्लध्यान सम्भव नहीं। चारों ध्यानोंका फल।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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