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शिविका
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शील
नामके साथ आर्य विशेषण जोड़कर उल्लेख किया है । (म. पु./प्र./ ४५ पं. पन्नालाल ) दे० शिवकोटि । शिविका-ध.१४/१.४.६१/३/२ माणुसे हि बुन्भमाणा सिविया
णाम। जो मनुष्यों के द्वारा उठाकर ले जायी जाती हैं वे शिविका कहलाती हैं। शिशुपाल-१. इसके साथ पहले रूक्मिणीका सम्बन्ध हो गया था (ह.पु./४६/५३) कृष्ण द्वारा रुक्मिणोके हर लिये जानेपर युद्धमैं मारा गया ( ह. पु./४२/६४) । २. पाटली पुत्रका राजा था। (वी. नि. ३) के पश्चात् इसके चतुर्मुख नामका पुत्र हुआ, जो कि अत्याचारी होनेसे कल्की सिद्ध हुआ। (म, पु./७६/४००) ३. मगध देशकी राज्य वंशावलीके अनुसार यह राजा इन्द्रका पुत्र व चतुर्मुख (कलिक)का पिता था। यद्यपि इसे कल्कि नहीं बताया गया है, परन्तु जैसा कि वंशावली में बताया गया है यह भी अत्याचारी व करकी था। हूणवंशी तोरमाण ही शिशुपाल है। समय-बी, नि. १००० १०३३ ( ई. ४७४-५०७ ) विशेष-दे. इतिहास/३/४ । शिष्य-गुरु शिष्य सम्बन्ध-दे, गुरु/२ । शीत-तीसरे नरकका दूसरा पटल-दे. नरक/११ | शीतगृह-भरत क्षेत्रमें मलयगिरिके निकट एक पर्वत-दे. मनुष्य/४ शीतपरोषह-स. सि./६/६/४२१/३ परित्यक्तप्रच्छादनस्य पक्षिवदनवधारितालयस्य वृक्षमूलपथिशिलातलादिषु हिमानीपतनशीतलानिलसं पाते तत्प्रतिकारप्राप्ति प्रति निवृत्तेच्छस्य पूर्वानुभूतशीतप्रतिकारहेतुवस्तुनामस्मरतो ज्ञानभावनागर्भागारे वसतः शीतवेदनासहनं परिकीर्यते। - जिसने आवरणका त्याग कर दिया है, पक्षीके समान जिसका आवास निश्चित नहीं है, बृक्षमूल, चौपथ और शिलातल आदिपर निवास करते हुए बर्फ के गिरनेपर और शीतल हवाका झोंका आनेपर उसका प्रतिकार करनेकी इच्छासे जो निवृत्त हैं, पहले अनुभव किये गये प्रतिकारके हेतुभूत वस्तुओंका जो स्मरण नहीं करता और जो ज्ञान भावनारूपो गर्भागारमें निवास करता है उसके शीत वेदनाजय प्रशंसा योग्य है। (रा.वा./8/E/4/08/४); (चा. सा./१११/४ )।
२. शीलवतके भेद चा. सा./१३/६ गुणवतत्रयं शिक्षाबतचतुष्टयं शीलसप्तकमित्युच्यते । दिग्विरतिः देशविरतिः, अनर्थदण्डविरतिः सामायिक, प्रोषधोपवासः उपभोगपरिभोगपरिमाणं अतिथिसंविभागश्चेति । तीन गुण व्रत व चार शिक्षाबतोंको शील सप्तक कहते हैं। उनके नाम निम्न हैं:दिग्विरति, देशविरति, अनर्थदंड विरति, सामायिक, प्रोषधोपवास. उपभोगपरिभोग परिमाण और अतिथि सविभाग बत।
३.शीलवतेष्वनतिचार मावनाका लक्षण स. सि./६/२४/३३८/९ अहिंसादिषु व्रतेषु तत्प्रतिपालनार्थेषु च क्रोधबंर्जनादिषु शीलेषु निरवद्या वृत्तिः शीलबतेष्वनतीचारः । - अहिंसादिक व्रत है और इनके पालन करनेके लिए क्रोधादिकका त्याग करना शील है। इन दोनों के पालन करने में निर्दोष प्रवृत्ति करना शीलवता. नतिचार है। (रा.वा./4/२४/३/५२६/१६) (चा. सा./५/२), (भा. पा./टी./७७/२२१/६)। ध. ६/३,४१/८२/४ सीलव्वदेसु णिरदिचारदार चेव तित्थयरणामकम्म बज्झइ। तं जहा-हिंसालिय-चोज्जम्बंधपरिग्गहे हितो विरदी बदं णाम । बदपरिरक्वणं शीलं णाम । सुरावाण-मासभरखण-कोह-माणमाया - लोह - हस्स - रइ-सोग-भय-दुछिस्थि-पुरिस-ण सयबेयापरिच्चागो अदिचारो, एदेसि विणासोणिरदिचारो संपुण्णदातस्स भावो णिरदिचारदा। तीए सीलब्वदेसु णिरदिचारदाए तित्थयर६म्मस्स बंधी होदि। - शील-व्रतों में निरतिचारतासे ही तीर्थकर नामकर्म बाँधा जाता है। वह इस प्रकारसे-हिसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्म और परिग्रहसे विरत होनेका नाम बत है। व्रतों की रक्षाको शील कहते है । सुरापान, मांसभक्षण, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद एवं नपुंसक वेद, इनके त्याग न करने का नाम अतिचार और इनके विनाशका नाम नितिचार या सम्पूर्ण ता है, इसके भावको निरतिचारता कहते हैं । शीलव्रतों में इस निरतिचारतासे तीर्थकर कर्म का बन्ध होता है।
शीतभोग तप-दे, कायक्लेश । शीतयोनि-दे. योनि ।
शीतलनाथ-(म, पु./५६/श्लोक ) पूर्वभः सं.२ में सुसीमा नगर
का राजा पद्मगुल्म था (२-३) पूर्वभवमें आरणेन्द्र था ( १७-१८) वर्तमान भवमें १० वें तीर्थकर हुए (२०-२७) इस भव सम्बन्धी विशेष परिचय-दे. तीर्थकर । शीतलप्रसाद (०)-आप अग्रवाल जातिमें गोयल गोत्री श्रावक श्री मक्रवनलाल जी के सुपुत्र थे। आपका जन्म वि. सं. १८३५ ई.१८७८ में हुआ था। आपने अनेकों अन्य रचे और समाज में बड़ा भारी काम किया । वास्तवमें आपने इस अन्धकारमय युग में ज्ञान का अद्वितीय प्रकाश किया । आप स्वयं अत्यन्त विरागी व कर्मठ व्यक्ति थे। आपके लिए जैन समाज अत्यन्त आभारी है। आपका मरण ई. १६४८ में हुआ था। शील--1. शीलवतका लक्षण स. सि./७/२४/३६५/६ बतपरिरक्षणार्थ शोलमिति दिग्विर यादीनीह
शीलग्रहणेन गृह्यन्ते। -व्रतोंको रक्षा करनेके लिए शोल हैं, इसलिए यहाँ शोल पदके ग्रहणसे दिग्विरति आदि लिये जाते हैं। (रा. वा./२४/१/५५३/२)।
.. इस एकमें शेष १५ मावनाओंका समावेश ध. ८/३, ४१/८२/८ कधमत्थ सेसपण्णरसण्णं संभवो। ण, सम्मईसणेण खग-लवपडिबुज्झण-लद्धिसंवेगसंपण्णत्त-साहुसमाहिसंधारण वेज्जा - बच्चजोगजुत्तत्त - पासुअपरिच्चाग - अरहत- महुसुदपवयण-भत्ति - पवयण-पहावण लवखण सुद्धिजुत्तेण विणा सीलव्यदाणमणदि चारत्तरस अणुबवत्तीदो। असंखेज्जगुणाए सेडीए कम्मणिज्जरहेदू बदं णाम । ण च सम्मत्तेण विणा हिंसालिय पोज्जभ अपरिग्गहविरइमेत्तेष सा गुणसे डिणिज्जरा होदि, दोहितो चेबुपज्जमाण कज्जस्स तत्येक्कादो समुप्पत्तिविरोहादो। होदु णाम एदेसि संभवी, ण णाणबिणयस्स । ण, छदव-गवपदस्थ समूह-तिहुणबिस एण अभिवरवणमभिवणमुवजोग बिसयमापज्जमाणेण णाण विणएण विणा सीलव्यद. णि बंधणसम्मत्तुप्पत्तीए अणुववत्तीदो। ण तत्थ चरणविणयाभावो वि, जहाथाम-तबाबासयापरिहोणत्त-पक्ष्यणवच्छलत्तलक्रवचरणबिण एण विणा सीखव्वदणिरदिचारत्ताण्ववत्तीदो। तम्हा तदियमेद तित्थयरणामकम्मबंधस्स कारणं । -प्रश्न-इसमें शेष १५ भावनाओं की सम्भावना कैसे हो सकती है । उत्तर--यह ठीक नहीं है, क्योंकि क्षण-लव-प्रतिबुद्धता, लब्धि-संबेगसम्पन्नता, साधु समाधि धारण, बैं यावत्ययोगयुक्तता, प्रासुक परित्याग, अरहंत भक्ति, बहुश्रुत भक्ति, प्रबचन भक्ति और प्रवचन प्रभावना लक्षण शुद्धिसे युक्त सम्यग्दर्शनके बिना शील बोंकी निरतिचारता बन नहीं सकती. दूसरी बात यह है कि जो असण्यात गुणित श्रेणीसे कर्म निर्जराका कारण है वही बत है। और सम्यग्दर्शनके मिना हिसा, असत्य. चौर्य, अब्रह्म, और परिग्रहसे विरक्त होने मात्रसे वह गुणश्रेणि निर्जरा हो नहीं सकती, क्योंकि
जैनेन्द्र सिवान्त कोश
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