Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
View full book text
________________
२६.
प्राचीन स्थितिका अन्वेषण कोई विशेष महत्त्वका नहीं है। सर्व प्रथम 'मगध' नाम अथर्ववेद ( ५-२२-१४ ) में आता है । वहां यह प्रार्थना की गई है कि गन्धारियों, मुजवन्तों और अंगों तथा मगधोंके देशमें ज्वर फल जाये । इनमेंसे पूर्वकी दो जातियां उत्तरीय हैं और शेष दो पूर्वीय हैं।
अथर्ववेद ( १५-६-१ आदि ) में मागधोंको व्रात्योंसे सम्बद्ध बतलाया है। यजुर्वेदमें पुरुषमेधकी बलि सूचीमें मागधोंका नाम भी सम्मिलित है। विदेशी द्विान् जीम्मर ( Zimmer ) अथर्ववेद
और यजुर्वेदमें उल्लिखित मागधोंको वैश्य और क्षत्रियके मेलसे उत्पन्न एक मिश्रित जातिका बतलाते हैं। कि तु सूत्रों में और एतरेय आरण्यक में मगधका निर्देश एक देशके रूपमें किया गया है। अतः स्पष्ट है कि यजुर्वेद और अथर्ववेदके समयमें मगध देशके वासीको मागध कहा जाता था। अतः मागध प्रतिलोमजात जाति वहिष्कृत नहीं थे। वैदिक इन्डेक्स (जि० २, पृ० ११६ ) में इस कल्पनाके आधारपर कि मगध गन्धर्वोका देश था, मागधों को गन्धर्व बतलाया है. क्योंकि उत्तर कालमें मागध वन्दी भाट कहलाते थे। उत्तरकालीन स्मृतियोंमें इस श्रेणीको एक पृथक जाति बतलाया है और उसकी उत्पत्तिके लिए दो विभिन्न जातियोंके विवाहकी एक कथाका आविष्कार भी कर डाला है। मागधोंके प्रति इस प्रकारके भावका सम्भावित कारण यह है कि मागधोंका ब्राह्मणीकरण नहीं हो सका था। शतपथ ब्राह्मण (१, ४-१-१०) की साक्षीके अनुसार प्राचीन काल में न तो कोसलका और न मगधका पूर्णरूपसे ब्राह्मणीकरण हुआ था, उसमें भी मगधका तो बहुत ही कम ब्राह्मणीकरण हुआ था।
भौगोलिक नाम शेष तीन वेदों और ब्राह्मण ग्रन्थोंके विषयमें सबसे उल्लेखनीय घटना है सरस्वतीका लोप । जिस स्थान पर उसका लोप हुआ
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org