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ज्ञानार्णवः ।
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अभावरूप शान्त भावोंकी) सिद्धिकेलीये अपने चित्तरूपी स्तंभ आलानित कहिये ठहराई वा बांधी हैं । भावार्थ - मुनिगण निरन्तर ही इनका चिन्तवन किया करते हैं ॥ ६ ॥
अनित्याद्याः प्रशस्यन्ते द्वादशैता मुमुक्षुभिः । या मुक्तिसौधसोपानराजयोऽत्यन्तबन्धुराः ॥ ७ ॥
अर्थ- वे भावना अनित्य आदि द्वादश हैं । इनको मोक्षाभिलाषी मुनिगणोंने प्रशंसारूप कही हैं । क्योंकि ये सब भावनायें, मोक्षरूपी महलके चढनेकी मर्यादारूप रची हुई अत्यन्त सुंदर पैंड़ियोंकी (सीढियोंकी) पंक्ति समान हैं ॥ ७ ॥
अथ अनित्यभावना ।
आगे इन भावनाओंका भिन्न २ व्याख्यान करेंगे, जिनमेंसे प्रथम ही अनित्यभावनाका वर्णन करते हैं, -
हृषीकार्थसमुत्पन्ने प्रतिक्षणविनश्वरे ।
सुखे कृत्वा रतिं मूढ विनष्टं भुवनत्रयं ॥ ८ ॥
अर्थ - हे मूढ ! क्षण क्षण नाश होनेवाले इन्द्रियजनित सुखमें प्रीतिकरके ये तीनोंभुवन नाशको प्राप्त हो रहे हैं, सो तू क्यों नहीं देखता ? ॥ ८ ॥ भवाधिप्रभवाः सर्वे सम्बन्धा विपदास्पदम् ।
सम्भवन्ति मनुष्याणां तथान्ते सुष्ठुनीरसाः ॥ ९ ॥
अर्थ — इस संसाररूपी समुद्र में भ्रमण करनेसे मनुष्योंके जितने संबन्ध होते हैं, वे सब ही आपदाओंके घर हैं । क्योंकि अन्तमें प्रायः सव ही सम्बन्ध निरस ( दुःखदायक ) हो जाते हैं । यह प्राणी उनसे सुख मानता है, सो भ्रम मात्र है ॥ ९ ॥
वपुर्विद्धि रुजाक्रान्तं जराक्रान्तं च यौवनम् ॥
ऐश्वर्य च विनाशान्तं मरणान्तं च जीवितम् ॥ १० ॥
अर्थ - हे आत्मन् । शरीरको तू रोगोंसे छिदा हुआ समझ और यौवनको बुढापेसे घिरा हुआ जान तथा ऐश्वर्य सम्पदाओंको विनाशीक और जीवन को मरणान्त जान । भावार्थ-ये सब पढ़ार्थ प्रतिपक्ष सहित जानने ॥ १० ॥
ये दृष्टिपथमायाताः पदार्थाः पुण्यमूर्त्तयः ।
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पूर्वाह्णे न च मध्याह्ने ते प्रयान्तीह देहिनाम् ॥ ११ ॥ अर्थ - इस संसार में जिनके यहां पुण्यके मूर्त्तिस्वरूप उत्तमोत्तम पदार्थ प्रभातके
निर्जरा
१- अनिल १, अशरण २, संसार ३, एकत्व ४, अन्यत्व ५, आनव ६, बंध ७, संवर ८, और धर्म १२ ये बारह हैं ।
लोक १०, बोधिदुर्लभ ११,
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