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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् असार संसारमें इच्छा बनी हुई है ? भावार्थ-संसारदेह भोगोंको उक्त प्रकारके जानकर भी जो जीव अपने प्रयोजनमें सावधान नहिं होते, उनका अज्ञानपना स्पष्ट है ॥ १ ॥
श्लोकः । नासादयसि कल्याणं न त्वं तत्त्वं समीक्षसे ।
न वेत्सि जन्मवैचित्र्यं भ्रातर्भूतैर्विडम्वितः ॥२॥ अर्थ-हे भाई ! तू भूत अर्थात् इन्द्रियोंके विपयोंसे विडम्बनारूप होकर अपने कल्याणमें नहिं लगता है और तत्त्वोंका (वस्तुखरूपका) विचार नहिं करता है, तथा संसारकी विचित्रताको नहिं जानता है; सो यह तेरी बडी भूल है ॥ २ ॥
असद्विद्याविनोदेन मात्मानं मूढ वश्चय ।
कुरु कृत्यं न किं वेत्सि विश्ववृत्तं विनश्वरम् ॥३॥ अर्थ-हे मूढ प्राणी ! अनेक असत् कला चतुराई शृंगार शास्त्रादि असद्विद्याओंके कौतूहलोंसे अपनी आत्माको मत ठगा, और तेरे करने योग्य जो कुछ हितकार्य हो उसे कर । क्योंकि जगत्के ये समस्त ख्याल विनाशीक हैं । क्या तू ये बातें नहिं जानता है। ॥ ३॥
समत्वं भज भूतेषु निर्ममत्वं विचिन्तय । ____ अपाकृत्य मनाशल्यं भावशुद्धि समाश्रय ॥४॥
अर्थ-हे आत्मन् ! तू समस्त जीवोंको एकसा जान । ममत्वको छोडकर निर्ममत्वका चितवन कर । मनकी शल्यको दूरकर अर्थात् किसी प्रकारकी शल्य (क्लेश ) अपने चित्तमें न रखकर अपने भावोंकी शुद्धताको अंगीकार कर ॥ ४ ॥ . आगे बारह भावनाओंके अंगीकार करनेका उपदेश करते हैं,
चिनु चित्ते भृशं भव्य भावना भावशुद्धये । ___ याः सिद्धान्तमहातन्ने देवदेवैः प्रतिष्ठिताः॥५॥ अर्थ हे भव्य ! तू अपने भावोंकी शुद्धिके अर्थ अपने चित्तमें वारह भावनाओंका चिन्तवन कर, जिन्हें देवाधिदेव श्री तीर्थंकर भगवान्ने सिद्धान्तके प्रवन्धमें प्रतिठारूप कही हैं ॥५॥ वे भावनायें कैसी हैं, सो कहते हैं,
ताश्च संवेगवैराग्ययमप्रशमसिद्धये । - आलानिता मनःस्तम्भे मुनिभिर्मोक्तुमिच्छुभिः ॥६॥
अर्थ-उन भावनाओंको मोक्षाभिलाषी मुनियोंने अपनेमें संवेग (धर्मानुराग) • वैराग्य (संसारसे उदासीनता) यम, (महाव्रतादि चारित्र) और प्रशमकी (कषायोंके