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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
अनादिकालसंलग्ना दुस्त्यजा कर्मकालिका । सद्यः क्षीयते येन विधेयं तद्धि धीमताम् ॥ ४४ ॥
अर्थ - अनादिकालसे लगी हुई कर्मरूपी कालिमा बडे कष्टसे त्यजने योग्य है । इस कारण यह कालिमा जिससे शीघ्र ही नष्ट हो जाय, वही उपाय बुद्धिमानों को करना चाहिये । अन्य उपाय करना व्यर्थ है ॥ ४४ ॥
निष्कलङ्क निराबाधं सानन्दं खखभावजम् ।
वदन्ति योगिनो मोक्षं विपक्षं जन्मसन्ततेः ॥ ४५ ॥
अर्थ - प्राणीका हित मोक्ष (कर्मो से छूटना ) है । सो कैसा है ? समरत प्रकारकी कालिमासे रहित निःकलंक है, बाधा ( पीड़ा ) रहित है, आनंद सहित है, जिसमें किसी भी प्रकारका दुःख नहीं है । तथा अपने स्वभावसे उत्पन्न है, क्योंकि जो परका उपजाया हो, उसको वह नष्ट भी कर सकता है, परन्तु जो खभाव से उत्पन्न हो, उसका कभी नाश नहिं होता । और संसारका विपक्षी कहिये शत्रु है । योगीगण मोक्षका स्वरूप इस प्रकार कहते हैं ॥ ४५ ॥
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आगे मोक्षको हित जान उसके साधन करनेकी शिक्षा देते हैं, -
जीवितव्ये निःसारे जन्मन्यतिदुर्लभे ।
प्रमादपरिहारेण विज्ञेयं स्वहितं नृणाम् ॥ ४६ ॥
अर्थ — मनुष्यजन्म अति दुर्लभ है । जीवितव्य है सो निःसार है। ऐसी अवस्थामें मनुध्यको आलस्य त्यागके अपने हितको जानना चाहिये । वह हित मोक्ष ही है ॥ ४६ ॥ विचारचतुरैधौरैरत्यक्ष सुखलालसैः ।
अत्र प्रमादमुत्सृज्य विधेयः परमादरः ॥ ४७ ॥
अर्थ — जो धीर और विचारशील पुरुष हैं, तथा अतीन्द्रिय सुख (मोक्षसुख ) की लालसा रखते हैं, उनको प्रमाद छोड़कर इस मोक्षमें हीं परम आदर करना चाहिये ॥ ४७॥ न हि कलकलैकापि विवेक विकलाशयैः ।
अहो प्रज्ञाधनैर्नैया नृजन्मन्यतिदुर्लभे ॥ ४८ ॥
अर्थ - अहो भव्य जीवो ! यह मनुष्य जन्म बड़ा दुर्लभ है और इसका चारंवार . मिलना कठिन है, इस कारण बुद्धिमानोंको चाहिये कि, विचारशून्य हृदय होकर का - लकी एक कलाको भी व्यर्थ नहिं जाने दें ॥ ४८ ॥
आगे उपदेशपूर्वक इस अधिकारको पूर्ण करते हैं,
शिखरिणी ।
भृशं दुःखज्वालानिचयनिचितं जन्म गहनम् यदक्षावधीनं स्यात्सुखमिह तदन्तेति विरसम् ।